Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयक मलमार्त्तण्डे
चिन्ताओं को सब ओर से हटाकर रोककर अन्तरंग में स्थित हो जाने से चक्षु आदि द्वारा जो रूप दिखाई देता है वह प्रथम क्षरण का प्रतिभास है, बस ! वही प्रत्यक्ष प्रमाण है, अब यह प्रश्न होता है कि जब इस प्रकार ज्ञान निर्विकल्प है तो हम सब जीवों को वैसा प्रतीत क्यों नहीं होता ? अर्थात् नाम आकार आदि से युक्त सविकल्प ज्ञान ही प्रतीत होता है, निर्विकल्प ज्ञान प्रतीत नहीं होता, तो उसका उत्तर ऐसा है कि
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" मनसो र्युगपदुवृत्त ेः सविकल्पाविकल्पयोः ।
विमूढः संप्रवृत्त र्वा (लघुवृत्त ेर्वा ) तयोरैक्यं व्यवस्यति ॥
- प्रमाण वा• ३/१३३
सविकल्प और अविकल्प मन की एक साथ प्रवृत्ति होती है अथवा वह क्रम से होती हुई भी अतिशीघ्रता से होने के कारण उसमें क्रमता प्रतीत नहीं होती है, इसलिये मूढ प्राणी उन निर्विकल्प और विकल्पज्ञानों में एकपना मान लेता है, मतलब यह है कि सर्व प्रथम निर्विकल्पक ज्ञान ही उत्पन्न होता है, वही भ्रान्ति रहित, अविसंवादी, तथा अज्ञात वस्तु का बोध कराने वाला है, किन्तु उसी के साथ अथवा अतिशीघ्र विकल्प पैदा होने के कारण निर्विकल्प प्रत्यक्ष की स्पष्टता विकल्प में प्रतीत होने लगती है, वस्तुतः और पूर्णतः तो निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अनुमानरूप विकल्प ज्ञान में भी प्रत्यक्ष के समान अविसंवादीपना, निर्भ्रान्तपना और अज्ञात का ज्ञापकपना पाया जाता है अतः सम्यग्ज्ञान का लक्षण उसमें घटित होने से अनुमानरूप विकल्प प्रमाण माना गया है अन्य विसंवादीरूप विकल्प प्रमाण नहीं माने गये हैं, क्योंकि विकल्पज्ञान संकेतकालीन वस्तु को ही विषय करता है, पर वह वस्तु वर्तमान में है नहीं, तथा वह शब्द संसर्गयुक्त है, अवद्यिमान का ग्राहक होने से वह अस्पष्ट है, इसलिये विकल्पों को हम अप्रमाण मानते हैं, निर्विकल्प स्पष्ट प्रतिभास वाला है और विकल्प अस्पष्ट प्रतिभास वाले हैं फिर भी हम जैसों को विकल्प ही स्पष्ट प्रतिभास वाला प्रतीत जो होने लगता है उसका कारण ऊपर में बतला ही दिया है । अब प्रश्न होता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण यदि निर्विकल्पक है तो उसके द्वारा व्यवहार की प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी ? तो इस प्रश्न का उत्तर तत्त्वसंग्रहकार ने इस प्रकार से दिया है
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