Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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बौद्धाभिमत-निविकल्प प्रमाण का खंडन
ननु साधूक्त प्रमाणस्याज्ञानरूपतापनोदार्थ ज्ञानविशेषणमस्माकमपीष्टत्वात्, तद्धि समर्थयमानैः साहाय्यमनुष्ठितम् । तत्त किञ्चिन्निर्विकल्पकं किञ्चित्सविकल्पकमिति मन्यमानप्रति अशेषस्यापि प्रमाणस्याविशेषेण विकल्पात्मकत्वविधानार्थं व्यवसायात्मकत्वविशेषणसमर्थनपरं तन्निश्चयात्मकमित्याद्याह । यत्प्राक्प्रबन्धेन समर्थितं ज्ञानरूपं प्रमाणम्
तनिश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ।। ३ ।। संशयविपर्यासानध्यवसायात्मको हि समारोपः, तद्विरुद्धत्वं वस्तुतथाभावग्राहकत्वं निश्चयात्मकत्वेनानुमाने व्याप्तं सुप्रसिद्धम् अन्यत्रापि ज्ञाने तद् दृश्यमानं निश्चयात्मकत्वं निश्चाययति, समारोप
बौद्ध-आप जैनों ने प्रमाण का जो ज्ञान विशेषण दिया है वह अज्ञानरूपता को हटाने के लिए दिया है यह आपकी बात हम मानते हैं क्योंकि आप हमारे-"ज्ञान ही प्रमाण है"-इस समर्थन में सहायक बन जाते हैं, परन्तु आपको इतना और मानना चाहिये कि वह प्रमाण कोई तो निर्विकल्पक होता है और कोई सविकल्पक होता है।
जैन-यह मान्यता हमें स्वीकार नहीं है । हम तो हर प्रमाण को विकल्पात्मक ही मानते हैं । इसलिए व्यवसायात्मक रूप प्रमाण का निश्चय कराते हैं- जो पहले ज्ञानरूप से सिद्ध किया हुआ प्रमाण है वह- "तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत्" प्रमाण, पदार्थ का निश्चायक है, समारोपसंशयादि का विरोधी होने से अनुमान की तरह । संशय विपर्यय, अनध्यवसाय को समारोप कहते हैं। उसके विरुद्ध अर्थात् वस्तु जैसी है वैसे ग्रहण करना निश्चायकपना कहलाता है। यह निश्चायकपना अनुमान में है । यह बात तो तुम बौद्ध आदि के यहां प्रसिद्ध ही है। अतः
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