Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे न; अस्या बुद्धावेवाभ्युपगमात् । न च श्रोत्रादिस्वभावा तद्धर्मरूपा अर्थान्तरस्वभावा वा तत्परिणतिघुटते; प्रतिपादितदोषानुषङ्गात् । न च परपक्षे परिणाम: परिणामिनो भिन्नोऽभिन्नो वा घटते इत्यग्रे विचारयिष्यते ।।
संबंध होता है, और उस सम्बन्ध के होने पर जो सामान्य विशेषात्मक पदार्थ का विशेष रूप से अवधारण होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है, तात्पर्य इसका यही है कि इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ के साथ सन्निकर्ष होने पर अथवा हेतु के ज्ञान से जो शुरु में बुद्धि (इन्द्रिय) का पदार्थ के प्राकार रूप होने पर उस पदार्थ का अवधारण होता है वह प्रमाण है, सांख्यमत का यह प्रमाण का लक्षण असमीचीन है, क्योंकि ये सांख्यादि मतवाले ज्ञान को तो प्रमाण का फल मानते हैं और ज्ञान के प्रमाण के जो कारण हैं, जो कि ज्ञान के साथ व्यभिचरित भी होते हैं -अर्थात् निश्चित रूप से जो ज्ञान को पैदा कर ही देते हों ऐसे जो नहीं हैं उन उन कारणोंको प्रमाण मानते हैं, अतः यह इन्द्रियवृत्ति सन्निकर्ष और कारक साकल्य के समान प्रमाण नहीं है, वास्तविक प्रमाण तो ज्ञान ही है अन्य नहीं है ।
* इन्द्रियवृत्ति का विचार समाप्त *
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