Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयक मलमार्त्तण्डे
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त्पन्नस्य कारणत्वं सिद्धान्तविरोधात् । नित्यत्वादीश्वरज्ञानस्योक्तदोषानवकाश इत्यप्यवाच्यम् ; तन्नित्यत्वस्येश्वरनिराकरणप्रघट्टके निराकरिष्यमाणत्वात् । तन्न सन्निकर्षोप्यनुपचरितप्रमारणव्यपदेशभाक् ।
विशेषार्थ - वैशेषिक सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं, किन्तु इसमें प्रमाण का लक्षण सिद्ध नहीं होता है, सन्निकर्षरूप प्रमाण के द्वारा संपूर्ण वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता है, वैशेषिक सर्वज्ञ को तो मानते ही हैं, परन्तु सन्निकर्ष से अशेष पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकने से उनके यहां सर्वज्ञ का अभाव हो जाता है । क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान यदि छूकर जानता है तो वह मात्र वर्तमान के और उनमें से भी निकटवर्ती मात्र पदार्थों को जान सकता है, प्रतीत अनागत के पदार्थों को वह जान नहीं सकता है, क्योंकि पदार्थों के साथ उसका ज्ञान संबद्ध नहीं है, कदाचित् संबद्ध मान लिया जावे तो भी वह जब प्रतीतानागत पदार्थों से सम्बन्धित रहेगा तो वर्तमान कालिक पदार्थों के साथ वह असंबद्ध होगा, इसलिये एक ही ज्ञान त्रैकालिक वस्तुओं की परिच्छित्ति नहीं कर सकता है, यदि सर्वज्ञ - ईश्वर में बहुत से ज्ञान माने जायेंगे तो भी वे ज्ञान क्रम से जानेंगे या अक्रम से ऐसे प्रश्न होते हैं । और इन प्रश्नों का हल होता नहीं है, अतः सन्निकर्ष में प्रमाणता खंडित होती है, इस विषय पर आगे चक्षु सन्निकर्षवाद में लिखा जाने वाला है । अलं विस्तरेण ।
* सन्निकर्षवाद समाप्त *
सन्निकर्ष प्रमाणवाद के खंडन का सारांश
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वैशेषिक लोग सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं अर्थात् ज्ञान का जो कारण है वह प्रमाण है ऐसा उन्होंने माना है, उनका कहना है कि ज्ञान तो प्रमाण का फल है, उसे प्रमाण स्वरूप कैसे मानें । स्पर्शनादि इन्द्रियों का पदार्थ के साथ प्रथम तो संयोग होता है, फिर उन पदार्थों में रहने वाले रूप रस आदि गुणों के साथ संयुक्त समवाय होता है, पुनः उन रूपादि गुण के रूपत्व रसत्व आदि के साथ संयुक्त समवेत समवाय
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