Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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सन्निकर्षवादः
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"युगपज् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' [ न्यायसू० १।१।१६ ] इति विरुध्येत । क्रमशोऽन्यत्र तदर्शनादत्रापि क्रमकल्पनायां योगिनः सर्वार्थेषु सम्बन्धस्य क्रमकल्पनास्तु तथादर्शनाविशेषात् । तदनुग्रहसामर्थ्याद् दृष्टातिक्रमेष्टौ च आत्मैव समाधिविशेषोत्थधर्म माहात्म्यादन्तःकरणनिरपेक्षोऽशेषार्थग्राहकोऽस्तु किमदृष्टपरिकल्पनया ? तन्नाणुमनसोऽशेषार्थं ः साक्षात्सकृत्सम्बन्धो घटते।
वैशेषिका-हां, ठीक तो है देखो- एक अंत:करणरूप जो मन है वह अकेला ही योगज धर्म की सहायता से विश्व के सूक्ष्मादिपदार्थों के ज्ञान का जनक हमने माना ही है।
जैन- यह कथन आपका सही नहीं है क्योंकि मन तो विचारा अणु जैसा छोटा है वह एक साथ सारे अनंत पदार्थों के साथ संबन्ध कैसे कर लेगा? और संबंध ( सन्निकर्ष) के बिना ज्ञान भी नहीं होगा यदि वह मन उनके साथ एक साथ सम्बन्ध करता है तो दीर्घशष्कुली- बड़ी २ कड़क-कड़क पुड़ी, आदि के खाते समय मन का चक्षु आदि इन्द्रियों के साथ युगपत् संबंध होकर रूपादि पांचों ज्ञानों की एक ही समय में उत्पत्ति होने लगेगी तो फिर आपका यह न्यायसूत्र गलत ठहरेगा
"युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम्' अर्थात् आपके यहां लिखा है कि एक साथ रूप रस आदि पांचों विषयों का ज्ञान जो नहीं होता है सो यही हेतु मन को अणुरूप सिद्ध करता है।
वैशेषिक-घटादि पदार्थों में क्रम क्रम से मन का संबंध देखा जाता है अतः रूपादि पांचों विषयों में भी वह क्रमसे होता है ऐसा मानना पड़ता है।
जैन-तो फिर योगी के अर्थात् सर्वज्ञ के ज्ञान में भी इसी तरह क्रमिकपना मानो, क्रम से मन का संबंध तो सर्वज्ञ में है ही।
वैशेषिक-योगज धर्म के अनुग्रह से मन एक साथ सबसे संबंध कर लेता है; इसलिये हम लोग दृष्ट का अतिक्रम कर लेते हैं । अर्थात् यद्यपि प्रत्यक्ष से तो मन क्रम क्रम से संबंध करने वाला है यह बात सिद्ध है फिर भी योगज धर्मके कारण उस प्रत्यक्षसिद्ध बात का भी उल्लंघन हो जाता है ।
जैन- ऐसी हालत में तो फिर आपको समाधि धर्म के माहात्म्य से अकेला आत्मा ही मन की अपेक्षा न करके सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है ऐसा मानना चाहिये
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