Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ___"प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति चतसृष्वेवंविधासु तत्त्वं परिसमाप्यत इति" [ ]। कथं वा सर्वज्ञज्ञानेनाप्यस्याप्रमेयत्वे तस्य सर्वज्ञत्वम् ? किञ्च प्रमारणवत् प्रमातुरपि प्रमेयत्वधर्माधारत्वं न स्यात्तस्य तद्विरोधाविशेषात् । तथा चाश्वविषाणस्येवास्यासत्त्वानुषङ्गः। तद्धर्माधारत्वे वा प्रमात्रा ततोऽर्थान्तरभूतेन भवितव्यं प्रमाणवत् । तस्यापि प्रमेयत्वे ततोऽप्यर्थान्तरभूतेनेत्येकत्रात्मनिप्रमेयेऽनन्तप्रमातृमालाप्रसक्तिः । यदि धर्मभेदादेकत्रात्मनि प्रमातृत्वं प्रमेयत्वं चाविरुद्ध तहि प्रमाणत्वमप्यविरुद्धमनुमन्यताम् । ततो निराकृतमेतत्-"प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरं प्रमाणम्” इति ।
चक्षुषश्वाप्राप्यकारित्वेनाग्रे समर्थनात्कथं घटेन संयोगस्तदभावात्कथं रूपादिना संयुक्तसमवायादिः ? इत्यव्याप्ति: सन्निकर्षप्रमाणवादिनाम् । सर्वज्ञाभावश्चेन्द्रियाणां परमाण्वादिभिः साक्षात्सम्बन्धाभावात् ; तथाहि-नेन्द्रियं साक्षात्परमाण्वादिभिः सम्बध्यते इन्द्रियत्वादस्मदादीन्द्रियवत् ।
होती है, वैशेषिक जब प्रमाण को प्रमेय नहीं मानेंगे उसे अप्रमेय ही मानेंगे तो प्रमाण अप्रमेय-जानने योग नहीं हो सकने से उसका अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाता है । इस प्रकार प्रमाण को अप्रमेय मानने से उसका अभाव हो जाने पर सारे ही तत्त्व समाप्त हो जाते हैं, तो फिर आप वैशेषिकों के यहां चारों वस्तुतत्त्वों की व्यवस्था कैसे हो सकेगी, “प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति, प्रमाता इन चारों में तत्त्व-परमार्थ तत्व-समाप्त होता है-अर्थात् विश्व के समस्त पदार्थ इन चारों में अन्तर्भूत हैं, जिसे छोड़ने और ग्रहण करने की इच्छा होती है ऐसे आत्मा की जो प्रवृत्ति है-अर्थात् हेय और उपादेय पदार्थ को ग्रहण करने की और छोड़ने की जिसे इच्छा होती है एवं उन्हें ग्रहण करने और छोड़ने की तरफ जो प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाता कहते हैं। जिसके द्वारा प्रमाता अर्थ को जानता है वह प्रमाण है, जो अर्थ प्रमाता के द्वारा जाना जाता है या जाना गया है वह प्रमेय है, और जो ज्ञप्ति-ज्ञान-जानने रूप क्रिया होती है वह प्रमिति है, ऐसा आपका कहना है सो वह समाप्त हो जाता है।
अच्छा आप यह तो बतायो-कि प्रमाणतत्त्व सर्वज्ञ के ज्ञानके द्वारा जाना जाता है या नहीं ? यदि वह उनके द्वारा नहीं जाना जायेगा तो उसमें सर्वज्ञतासर्वज्ञपना-नहीं रहेगी क्योंकि उसने प्रमाणतत्व को जाना नहीं और पूर्णतत्वको ज ने बिना वह सर्वज्ञ कैसे हो सकता है, तथा जैसे प्रमाण प्रमेय धर्म का आधार नहीं है, वैसे प्रमाता में भी प्रमेयधर्म नहीं रहेगा, क्योंकि इन चारों का आपस में विरोध तो समानरूप से है ही, इस तरह फिर प्रमाण भी घोड़े के सींगकी तरह असत् हो जावेगा, यदि प्रमाता प्रमेय धर्म का आधार होता है तो उसे जानने के लिये दूसरा एक और
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