Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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कारकसाकल्यवादः
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तत्सिद्धौ च साकल्यसिद्धिरिति । नाप्यसकलान्यतिप्रसक्त: । किञ्च यया प्रत्यासत्त्या तथाविधान्येतानि साकल्यमुत्पादयन्ति तयैव प्रमामप्युत्पादयिष्यन्तीति व्यर्था साकल्यकल्पना । करणमन्तरेण प्रमोत्पत्त्यभावे साकल्येऽप्यन्यत् करणं कल्पनीयमित्यनवस्था । न चाध्यक्षसिद्धत्वात्साकल्यस्यादोषोऽयम् ; आत्मान्तःकरणसंयोगादेरतीन्द्रियस्याध्यक्षाऽविषयत्वात् । केवलं विशिष्टार्थोपलब्धिलक्षणकार्यस्याऽध्यक्षसिद्धस्य करणमन्तरेणानुपपत्त स्तत्परिकल्पना, तच्च मनोलक्षणकरणसद्भावे साकल्यमेवेत्यवधारयितु न शक्यम् । तन्न सकलकारककार्य साकल्यम् । कोई दोष नहीं है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा मन आदिका संयोग तो अतीन्द्रिय है वह तो इन्द्रियों के प्रत्यक्ष है नहीं, सिर्फ विशिष्ट पदार्थ का जानने रूप जो कार्य है कि जो अध्यक्ष से सिद्ध है वह करण के बिना नहीं हो सकता सो इतने मात्र से यदि करण को मानते हो तो वह करण अन्तरंग मन रूप भी होता है, ऐसी हालत में साकल्य ज्ञानरूप कार्य को करता है ऐसा निश्चय तो नहीं रह सकता, इसलिये प्रारंभ में जो चार पक्ष रखे थे उनमें से तीसरा पक्ष-सकलकारकों के कार्य को साकल्य कहते हैं- ऐसा जो है वह भी ठीक नहीं रहा ।
___ इसी प्रकार पदार्थान्तर भी साकल्यरूप नहीं हो सकता है, क्योंकि जगत् के समस्त पदार्थों में साकल्यरूपता का प्रसङ्ग प्राप्त हो जावेगा, अर्थात् संसार में जितने पदार्थ हैं वे सब साकल्यपने को प्राप्त हो जावेंगे, और पदार्थ तो हमेशा ही उपलब्ध होते रहते हैं, अतः सभी को हमेशा अर्थ की उपलब्धिरूप प्रमाण होने से सभी व्यक्ति सर्वज्ञ बन जावेंगे, इस प्रकार कारक साकल्य का स्वरूप ही असिद्ध है, यदि सिद्ध है तो भी वह ज्ञान से व्यवहित होकर काम करता है, अतः उसमें सत्यता नहीं है ।
विशेषार्थ-कारक साकल्य को प्रमाण मानने वाले जरन्नैयायिक हैं, उनके यहां कारक साकल्य का लक्षण इस प्रकार है-अव्यभिचारस्वरूप तथा नियम से ही जो पदार्थों की उपलब्धि —जानकारी करा दे ऐसी बोध और अबोध से मिली हुई जो सामग्री है वह प्रमाण है, इस प्रकार कारक साकल्य कहिये या सामग्री कहिये दोनों ही प्रमाण के नामान्तर हैं। प्रमाण शब्द करण साधन से निष्पन्न है और करण साधकतमरूप होता है, प्रमाण की उत्पत्ति के लिये सामग्री साधकतम है, अतः वह प्रमाण अनेक कारकों की सन्निकटता से होता है, उन कारणों में से एक भी न हो तो कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, उन कारकों में से किसी एक को मुख्य या अतिशयवान नहीं कर सकते, क्योंकि कार्यों के उत्पाद में किसी एक कारक या उसका अतिशय काम नहीं
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