Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
नापि पदार्थान्तरं सर्वस्य पदार्थान्तरस्य साकल्यरूपताप्रसङ्गात् । तथा च तत्सद्भावे सर्वत्र सर्वदा सर्वस्यार्थोपलब्धिरिति सर्वः सर्वदर्शी स्यात् । ततः कारकसाकल्यस्य स्वरूपेणाऽसिद्ध: सिद्धौ वा ज्ञानेन व्यवधानान्न प्रामाण्यम् ।।
करता, किन्तु सभी के सभी कारक ही उस कार्योत्पादन में अग्रसर होकर काम करते हैं। इस सामग्रीप्रमाणवाद या कारकसाकल्यवाद का दूसरी तरह से भी लक्षण हो सकता है।
___ कर्ता और कर्म से विलक्षण, संशय और विपर्यय से रहित पदार्थों के ज्ञान को पैदा करनेवाली जो बोध और अबोध स्वभाव भूत सामग्री है वही प्रमाण है। इस प्रकार की नैयायिक की मान्यता है, किन्तु यह सब मान्यता असत्य है, क्योंकि पदार्थों को जानने के लिये अबोध अर्थात् अज्ञानरूप सामग्री किस प्रकार उपयोगी हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती है । क्या अंधा रूप को देख सकता है ? या पंगु चल सकता है ? नहीं। उसी प्रकार अबोधरूप सामग्री प्रमाण नहीं हो सकती, यदि उपचार मात्र से सामग्री को प्रमाण मानते हो तो हम जैनों को कोई बाधा नहीं है। उपचार से तो प्रकाश, शास्त्र, गुरु आदि को भी प्रमाण का कारण होने से कारण में कार्य का उपचार करके प्रमाण मान सकते हैं । जैसे कि "अन्नं वै प्राणाः" अन्न ही प्राण हैं ऐसा मानना उपचार मात्र है न कि मुख्यरूप है ।
कारक साकल्यवाद का सारांश
नैयायिक ( जरन्नैयायिक, जयंत भट्ट ) लोग कारक साकल्य को प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि प्रमाण, प्रमेय, आकाश, दिशा आदि सभी की सकलता होना ही प्रमाण है, इसीको कारक साकल्य कहते हैं, कारक अर्थात् प्रमाण को पैदा करने वाले पदार्थ उनकी सकलता या पूर्णता यह साकल्य है, इस प्रकार कारक साकल्य का अर्थ किया जाता है, इसी के द्वारा पदार्थों का ज्ञान होता है, देखो- आँख के द्वारा मैंने जाना, दीपक द्वारा मैंने जाना ये सब ज्ञान करणरूप दीपकादिक से ही तो होते हैं।
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