Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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कारकसाकल्यवाद:
नैयायिक के पक्ष का प्राचार्य ने सुन्दर रीति से खंडन किया है, प्रथम यह कहा है कि वस्तु को जानने के लिए अज्ञान का विरोधी ज्ञानरूप करण होना चाहिए, जो साधकतम हो वही ज्ञान है ऐसा नहीं हो सकता, यदि हो जाय तो लकड़ी को काटने वाला होने से कुठार साधकतम है, वह भी ज्ञानरूप करण बन जायगा, दीपकादिकों को तो उपचार से करण माना गया है. मुख्यता से नहीं, कारक के साकल्य का स्वरूप भी असिद्ध है, सकलताको ही साकल्य कहना अथवा उसका धर्म या कार्य अथवा कोई भिन्न ? इस तरह साकल्य के चार स्वरूप हो सकते हैं और किसी रूप से उसका स्वरूप नहीं बनता, इन चारों पक्षों का अच्छी तरह से खंडन किया गया है, सकल कारकों को साकल्य मानें तो कर्ता कर्म को भी साकल्य मानना पड़ेगा, फिर साधकतमरूप करण को ही प्रमाण क्यों मानना, सकल कारकों के धर्म को साकल्य मानने में भी अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं, क्या वह धर्म उनसे भिन्न है या अभिन्न है, भिन्न है तो उनके साथ संबंध कैसे हैं, अभिन्न है तो या तो कारक ही रहेंगे या धर्म ही रहेगा, सकल कारकों में कार्य को साकल्य कहें तो भी बनता नहीं, क्योंकि सकल कारकों में नित्य आत्मा आदि पदार्थ भी समाविष्ट हैं और उन नित्य आत्मा आदि से कोई उत्पन्न नहीं हो सकता, यदि होगा तो उसे हमेशा ही होते रहना चाहिए, सहकारी कारण कभी २ मिलते हैं अतः सतत कार्य नहीं होता इस प्रकार की नैयायिक की दलील बेकार है, क्योंकि सहकारी की सहायता से वे आत्मादिक कार्य करते हैं तो नित्य में परिवर्तन मानना पड़ेगा और उससे वे अनित्य सिद्ध हो जावेंगे, सकल कारकों को छोड़कर यदि भिन्न पदार्थ को साकल्य कहें तो वे पदार्थान्तर सर्वत्र हमेशा ही मौजूद रहते हैं इसलिए फिर तो सभी को सर्वज्ञ बन जाने का प्रसंग आता है, इसलिये कारक साकल्य को प्रमाण मानना श्रेयस्कर नहीं है।
* कारक साकल्यवाद का सारांश समाप्त *
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