Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयक मलमार्त्तण्डे
कारणामन्य सन्निधानेऽपि तत्कारित्वासम्भवात्, सम्भवे वा पर एव परमार्थतः कार्यकारको भवेत् स्वात्मनि तु कारकव्यपदेशो विकल्पकल्पितो भवेत् । तथा चान्यस्यानुपकारिणो भावमनपेक्ष्यैव कार्य तद्विकलेभ्य एव सहकारिभ्यः समुत्पद्यत । तेभ्योऽपि वा न भवेत् स्वयं तेषामप्यकारकत्वात् पररूपेणैव कारकत्वात् । अतः सर्वेषां स्वयमकारकत्वे पररूपेणाप्यकारकत्वात् तद्वार्तोच्छेदतो न कुतश्चित् किञ्चिदुत्पद्यत । ततः स्वरूपेणैव भावाः कार्यस्य कर्तार इति न कदाचित्तत्क्रियोपरतिः स्यात् ।
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सहकारी कारण मिलने के बाद भी पररूप से कार्य नहीं करते हैं अर्थात् सहकारीरूप से कार्य नहीं करते हैं, अपनेरूप से ही कार्य करते हैं । दूसरी बात यह है कि जो स्वतः अकारक हैं वे सहकारी के मिलने पर भी कार्यों के कारक नहीं हो सकते, यदि वे कार्यों के कारक होते हैं तो सहकारी ने ही कार्य किया यही माना जायगा, तो ऐसी हालत में आत्मा में कारकपना मानना काल्पनिक ही ठहरता है, अतः अनुपकारी उस बेकार आत्मादिक की अपेक्षा के बिना ही वे अकेले सहकारी ही कार्य उत्पन्न करने लगेंगे, अथवा उनसे भी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकेगा, क्योंकि वे सहकारी भी तो स्वतः
कारक ही हैं । ग्रात्मादिक की सहायता से ही वे कार्य करने में योग्य माने गये हैं, अन्त में तो सारे के सारे ( आत्मा सहकारी आदि ये सब ) स्वयं जब कार्य करने में असमर्थ हैं तब एक दूसरे की सहायता से भी इनमें कार्य करने की क्षमता नहीं प्रा सकने से कारक की बात ही समाप्त हो जाती है, अर्थात् ऐसी हालत में किसी से भी कुछ कार्य नहीं उत्पन्न हो सकेगा, इसलिये इस आपत्ति को दूर करने के लिये प्रत्येक पदार्थ स्वतः ही कार्य करते हैं ऐसा माना जावे तो कार्य का होना कभी नहीं रुकेगा - हमेशा ही कार्य होता रहेगा ।
नैयायिक कार्य सामग्री से उत्पन्न होते हैं, और सामग्री जो होती है वह दूसरे २ अनेक कारणरूप होती है, इसलिये नित्य आत्मादि एक एक पदार्थ से कार्य उत्पन्न नहीं होते हैं, भले ही उन ग्रात्मादिक में कार्य करने का स्वभाव है ।
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जैन - नैयायिक का यह कथन गलत है, क्योंकि ये श्रात्मादिक अकेले क्रम से कार्य कर लेते हैं तो फिर उन कार्यों की अनेक तरह की भिन्न भिन्न काल में होने वाली दूसरी दूसरी सामग्री की क्या जरूरत है, उन कार्यकर्त्ता ग्रात्मादिक नित्य पदार्थों को जो कि कार्य करने की सामर्थ्य धारण कर रहे हैं उनको खुद ही सारे कार्य कर डालना चाहिये, यदि वे नहीं करेंगे तो उनमें ऐसी सामर्थ्य काहे को मानना, वस्तु में
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