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* पार्श्वनाथ चरित्र #
यह सुन कुमारके जीको बड़ी कड़ी चोट लगी और वे जंगलके एक वट वृक्ष के नीचे जाकर कहने लगे, – “ है वन देवताओ ! हे लोक पालो ! सुनो तुम लोग गवाह रहो। हे धर्म ! मुझे केवल तुम्हारा ही आसरा है ।" यह कह उन्होंने छुरीसे अपनी दोनों आँखें निकालकर सज्जनको दे डालीं । अबके वह नीच केवक बोला, -- “ हे सत्यपारायण कुमार ! अब धर्मके सुन्दर फल मजेसे चखते रहो ।" यह कह वह घोडेपर चढ़ा हुआ चला गया ।
इधर दुःख-रूपी नदीके हिलोरेमें चक्कर खाते हुए कुमार सोचने लगे, – “यह क्या अनहोनी हो गयी ? धर्मका पल्ला पकड़े रहनेपर भी यह क्या नतीजा हुआ ? अवश्य ही यह मेरे पूर्वजन्मके दुष्कर्मो का फल है। पर इसमें तो शक नहीं कि तीनों लोकमें धर्म ही जयका हेतु है।" ऐसा सोच ही रहे थे कि एकाएक सूर्य अस्त हो गये । मानों उनका दुःख देखा नहीं गया, इस लिये वे छिप रहे । पक्षी भी उनका दुःख न देख सकनेके कारण अपने-अपने घोंसलोंमें जा छिपे । सब दिशाओंमें अंधेरा छा गया । इस समय उस वट-वृक्षपर बहुतसे भारण्डपक्षी इकट्ठे होकर इस प्रकार बातें करने लगे- “भाइयों ! जिस किसीने कोई अचम्भे की बात देखी हो, वह कह सुनाये ।” इतनेमें एक बूढ़ा भारण्ड बोल उठा, – “भाइयो मैंने एक अचम्भा देखा है, उसका हाल सुनाता हूँ ।"
“यहाँसे पूर्व दिशामें चम्पा नामकी एक । वहाँ संसार प्रसिद्ध राजा जितशत्रु राज्य
बड़ी भारी नगरी करते हैं। उनके