________________
जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि शृंगार के चित्रण में जयशेखर की प्रवीणता निर्विवाद है। वे शृंगार रस की निष्पत्ति के लिए अपेक्षित विविध भावों को पृथक्-पृथक् अथवा समन्वित रूप में चित्रण करने में कुशल हैं । जैन कुमारसम्भव में दोनों प्रकार के वर्णन मिलते हैं। ऋषभदेव के विवाह में आते समय, प्रियतम का स्पर्श पाकर, किसी देवांगना की मैथुनेच्छा सहसा जाग्रत हो गई । भावोच्छ्वास से उसकी कंचुकी टूट गयी। वह कामावेग के कारण असहाय हो गयी। फलत: वह अपनी इच्छापूर्ति के लिए प्रियतम की चापलूसी में जुट गयी।
उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा श्रमाकुला काचिदुदंचिकंचुका । वृषस्यया चाटुशतानि तन्वती जगाम तस्यैव गतस्त विघ्नताम् ॥ ४११०
नवविवाहित ऋषभ को देखने को उत्सुक पुर-युवति की अधबंधी नीवी दौड़ने के कारण खुल गयी। उसका अधोवस्त्र नीचे खिसक गया पर उसे इसका भान नहीं हुआ। वह नायक को देखने के लिए अधीरता से दौड़ती गयी और उसी मुद्रा में जनसमुदाय में मिल गयी। पौर युवती पर नायक के प्रति रति भाव आरोपित करना तो उचित नहीं किन्तु शृंगार के संचारी भाव उत्सुकता की तीव्रता, उसकी अधीरता तथा आत्मविस्मृति में बिम्बित हैं।
कापि नार्धयमितश्लथनीवी प्रसरन्निवसनापि न ललज्जे । नायकानननिवेशितनेत्रे जन्यलोकनिकरेऽपि समेता ॥ ५.३६.
रुचकाद्रि के लतागृहों की गोपनीयता देवदम्पतियों की रति के लिये आदर्श परिवेश का निर्माण करती है, तो अष्टापद की रजत शिलाएँ तथा सुखद पुष्पशय्याएँ, सम्भोगकेलि में मानिनियों को मानत्याग के लिए विकल कर देती हैं। श्रृंगार के उद्दीपन भावों को, रति के सोपान के रूप में, चित्रित करके कवि ने पर्वतीय नीरवता का समुचित उपयोग किया है ।
तरुक्षरत्सूनमदूत्तरच्छदा व्यधत्त यत्तारशिला विलासिनाम् । रतिक्षणालम्बितरोषमानिनीस्मयग्रहग्रन्थिभिवे सहायताम् ॥ २.३६.
जयशेखर ने काव्य की रसात्मकता की तीव्रता के लिए वात्सल्य, भयानक हास्य तथा शान्त रसों का आनुषंगिक रूप में यथेष्ट पल्लवन किया है । ऋषभ के शैशव के चित्रण में वात्सल्य रस की मधुर छटा दर्शनीय है। शिशु ऋषभ की तुतलाती वाणी, लड़खड़ाती गति, अकारण हास्य आदि केलियाँ सबको आनन्द से अभिभूत करती हैं । वह दौड़कर पिता से चिपट जाता है । पिता उसके अंगस्पर्श से विभोर हो जाते हैं । हर्षातिरेक से उनकी आँखें बन्द हो जाती हैं और वे 'तात-तात' की गुहार लगाते रहते हैं।