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भरतेश वैभव लदा हुआ था, उसे आपने उतार दिया। इस प्रकार सुमनाजी बहुत संतोषके साथ बोलने लगीं। ___ सम्राट् कहने लगे कि पहिले आधे भागमें तो सुमनाजीकी रचना है और उत्तरार्धमें तुम्हारी रचना है, तब अमराजा बहुत हर्षित हो बोली कि यह बिलकुल ठीक है ।
सुमनाजी बोली बहिन ! मैंने पहिले ही कहा था कि तुम ही इसकी पूर्ण रचना करो, उसे न मूनकर तुम चुपचाप बैठ गई। फिर मैंने थोड़ीगी रचना कर उपायसे आगे की रचना करनेको तुम्हें प्रवृत्त किया। ___ स्वामिन् ! आदिमंगल तो मेरी ही रचना है, परन्तु मध्यमंगल व अंन्यमंगल ग्रह सब कुछ अमराजीकी रचना है । आप इन सब बातोंका भेद स्पष्ट रूपसे समझ गये। क्या भगवान् आदिनाथने तो आकर आपको नहीं कहा? बहिन ! देखो तो सही, अपने पतिराजको हमलोग कैसे जीत सकती हैं ? हमारे अन्तरंगको वे किस कुशलताके साथ जानते है। इस प्रकार कहती हुई सभी स्त्रियाँ परस्पर हर्ष मनाने लगीं।
सम्राट् बोलने लगे कि आप लोगोंका काव्य सुनकर मुझे हर्ष हुआ । तुम्हारा कविता करनेका अभ्यास भी अच्छा है । मैं इस काव्यकी रचनासे प्रसन्न हुआ हूँ। तुम लोगोंको इस प्रसन्नताके उपलक्ष्यमें इस समय मैं क्या हूँ ? जिस पदार्थको चाहो उसे माँगो मैं उसे देनेकी आज्ञा करूँगा।
स्वामिन् ! आपको प्रसन्नकर आपसे कोई धन वैभवका पुरस्कार पानेकी इच्छामे हम लोगोंने इसकी रचना नहीं की है। हम लोगोंके मन में कोई लोभ नहीं है। आपके मन में जो हर्ष हुआ है वह आपके ही भण्डारमें जमा रहे । ऐमा उन दोनों रानियों ने कहा।
"अच्छी बात ! हम प्रसन्नता मतिफलको आप लोग जब चाहेंगी, तब हम देंगे। अभी मैंने जिन आभूषणोंको पहिन रखा है मैं उनमेंसे तुम्हें दूंगा' सम्राट्ने कहा। ___"स्वामिन् ! हमें अभी आपकी दयासे कोई आभरणोंकी कमी नहीं है। आवश्यकतासे भी अधिक आभरण हमारे पास हैं, इसलिये आभरण देनेकी घोषणा भी आपके ही खजानेमें जमा रहे। हमें अभी उसकी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार बहुत संतोषके साथ वे बोलीं।