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भरतेश वैभव
हो चुका है। का' ही मुझे भाग नहीं ? आओ । में नहीं आती।
सम्राट्-देवी ! पहिलेके सत्कारसे तुम्हें दुःख हुआ.! अबकी बार उससे भी बढ़िया भेंट तुम्हें दूंगा, तुम घबराओ मत । ___ मकरंदाजी-व्यर्थकी बातोंसे मेरे चित्तमें क्रोधकी उत्पत्ति नहीं करना, मुझे आश्चर्य होता है कि दुनियामें जन्म लेकर तुमने क्या मायाचार फैला रखा है। स्त्रियोंको देखते ही उनको आलिंगन देते हो। क्या यही तुम्हारा ध्यान रहता है ? क्या तुम्हारे पास स्त्रियोंकी कमी है ? हजारों स्त्रियोंके रहनेपर भी इस प्रकारकी वृत्ति तुम्हारी उचित है। जो तुमसे प्रसन्न है उसके साथमें यह व्यवहार ठीक है । परंतु जो तुमसे बचकर दूर जाना चाहती है उसे जवरदस्ती पकड़ रखने व मुखको हटा लेनेपर भी जबरदस्ती चुंबन देनेकी तुम्हारी वात देखकर हँसी आती है।
इस प्रकार मकरंदाजी कहनी हुई अंदर-अंदर ही हँस रही थी और बीच-बीच में बोलती जा रही थी।
कुसुमाजी रानी जान गई कि भरतेशको अपनी बहिनपर प्रीति उत्पन्न हो गई है। इसलिए दोनोंकी बात चुपचाप सुन रही थी। तब भरतेश फिर मकरंदाजीसे बोले कि :____ अरी धूर्ता! मैं तुम्हें पुरस्कार देकर तुम्हारा सत्कार करना चाहता हूँ। परंतु तुम मुझे तिरस्कृत कर रही हो। यह क्यों ?
मकरंदाजी-राजन् ! तुम महाधूर्त हो। वह पुरस्कार तुम्हारे पास ही रहे मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है।
भरतेश्वर इस बातको सुनकर हँसे ब कहने लगे कि अच्छा ! मैं धूर्त हूँ । अपनी धूर्तता क्या अब बतलाऊँ ?
इसे सुनकर मकरंदाजी एकदम सहम गई और कहने लगी कि आज आपकी गंभीरता किधर चली गई ? कीड़ा करने की इच्छा हो रही है। दरबारमें बैठनेपर तम्हारे मुखसे दो चार शब्दोंका निकलना भी दुर्लभ हो जाता है। परंतु 'आज' इस प्रकार वचनोंकी वर्षा क्यों हो रही है ?
भरतेश-तुम दुःखी हुई इस लिये मैं तुम्हें पुरस्कार देकर संतुष्ट करना चाहता था, परंतु तुम कुछ और ही समझ रही है । ___मकरंदाजी-देखो! फिर वही बात ! आप अपना हर फिर भी छोड़ना नहीं चाहते। आपने पहिले जो पुरस्कार दिया वह भी मुझे भार हो गया है। "इसलिये लीजिये यह रत्नहार आपके सामने ही