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भरतेश वेभव हे सिद्धात्मन् ! आप सातिशयस्वरूपी हैं, रूपातोत हैं, देहरहित हैं, चिन्मय-देहको धारण करनेवाले हैं, मतिगम्य हैं, अप्रतिम हैं, जगदगुरु हैं, इसलिए मुझे सन्मति प्रदान कीजिये।" ___ इसी विशुद्ध भावनाका फल है कि भरतेश्वर ऐसे विवेकी गत्पुत्रोंको. पाते हैं। यह सब अनेक भवागाजित सातिशय 'पुण्यका फल है ।
इति विद्यागोष्ठि संधिः
विरक्ति-संधिः
भरतेश्वरके कुमार साहित्यसागरमें गोते लगा रहे थे इतने में एक नवीन समाचार आया । हस्तिनापुरके अधिपति मेघेश्वरने' समवशरणमें पहुंच कर जिनदीक्षा ली है। इस समाचारके पहुंचते ही वहाँपर सन्नाटा छा गया। लोग एकदम स्तब्ध हए। यह कैसा ? वह कैसा? एकदम ऐसा क्यों हुआ, इत्यादि चाय होने लगी। जाते समय राज्यको किसके हाथ में सौंपा ? क्या अपने सहोदरों को राज्य प्रदान किया या अपने पुत्रको राज्यका अधिपति बनाया ? इतनेमें मालूम हुआ कि उन्होंने जाते समय अपने से छोटे भाई विजयराजको बलाकर कहा कि भाई ! अब तुम राज्यका पालन करो। तब विजयराजने उत्तर दिया कि भाई तुमको छोड़कर में राज्यका पालन करूँ ? मेरे लिए धिक्कार हो ! इसलिए मैं तुम्हारे साथ ही आता है। तदनन्तर उसके छोटे भाई जयंतराजको बुलाकर कहा. गया कि तुम राज्यका पालन करो। तब जयंतराजने कहा कि माई ! जिस राज्यको संसारवधक समझकर तुमने परित्याग किया है वह राज्य मेरे लिए क्या कल्याणकारी है ? तुम्हारे लिए जो बीज खराब है, वह मेरे लिए अच्छी कैसे हो सकती है ? इसलिए तुम्हारा जो मार्ग है वही मेरा मार्ग है मैं भी तुम्हारे साथ ही आता हूँ।
जब जयकुमार अपने भाइयोंको राज्यपालनके लिए मना नहीं सका तो उसने अपने पुत्र अनंतवीर्यको राज्य प्रदान कर पट्टाभिषेक किया । और अपने दोनों सहोदरों के साथ दीक्षा ली 1 जयकुमारका पुत्र अनंतवीर्य
१. सपाट्का सेनापति जयकुमार ।