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मरसेश वैभव
२५५ व दर्पणको हाथमें लिए हुई थीं, परन्तु शृङ्गारसिद्धकी दृष्टि उस ओर नहीं थी। उसकी दष्टि मक्तिकांताके रत्नकुचकलश व मखदर्पणमणिकी ओर थी 1 वह उसीको आनन्दसे देख रहा था। तरक्षण देवीने पतिकी आरतो उतारकर कंठमें पुष्पमाला धारण कराई । एवं सियोंके प्रयल गीत के साथ शृङ्गारसिद्धके चरणकमलोंको नमस्कार किया । जब मुक्त्यांगनाझुंजारसिसके चरणोंमें पड़ी तो उसे हाथसे पकड़कर उठानेकी इच्छा तो एकदफे हुई। परन्तु पुनः सोचकर वह सिद्ध वैसा हो खड़ा रहा। न मालूम उसके हृदय में क्या बात थी।
विवाह तो कन्यादानपूर्वक हुआ करता है । अब यहाँपर इस कन्याको दान देनेवाले माता पिता नहीं है। ऐसी अवस्थामें स्वयं प्रसन्न होकर आई हुई कन्याके साथ मैं पाणिग्रहण कैसे कर सकता हूँ। इस विचारसे वह शृङ्गारयोगी उसकी ओर देखते ही खड़ा रहा। __मुक्तिकांताकी सखियोंने सिद्धके हृदयको पहिचान लिया । कहने लगी कि स्वामिन् ! तुम्हारे प्रति मोहित होकर आई हुई कन्याके हाथको ग्रहण करो, सुविख्यात मुक्तिकांताको देनेवाले कौन है । उसके पिता कौन ? माता कौन ? वह स्वसिद्ध विनीता है। कितने ही समयसे आपके आगमनकी प्रतीक्षा कर रही है। अब आपके आनेपर आनन्दसे चरणों में पड़नेवालो प्रेयसीके पाणिग्रहण न करते हुए आप खण्ड-खण्ड देख रहे हैं। हे निष्करुणि ! आपके हृदयसे क्या है ? कामकी शिकारमें आपको सुनतो हुई, प्रौखको शिकारसे देखती हुई एवं प्रत्यक्ष संसर्गके लिए हृदयसे कामना करनेवाली युवती कामिनीको जब आप उठाकर आलिंगन नहीं देते हैं तो आप आत्मानुभवी कैसे हो सकते हैं ? हाय ! दुःखकी बात है। __वह मुक्तिकामिनी प्रसन्न होकर आपके चरणों में पड़ी है। हमारी स्वामिनी महापतिभक्ता है, आप नायकोत्तम है। इसलिए इसे अपनो खी बनाये।
इन बातोंको सुनकर भी वह शृङ्गारसिद्ध हंसते हुए खड़े हो रहे । इतने में उसके हृदयसे विराजमान गुरुहंसनाथने कहा कि हे चतुर ! इस कन्याको में प्रदान करता है। उसका पाणिग्रहण करो। तत्क्षण उसने हाथ पकड़ लिया। मस्तकपर हाथ लगाकर उठाया, विशाल बाहुओंसे गाढ़ आलिंगन दिया। परिवारदेषियोंने आनन्दसे जय जयकार किया। अब यह कुशलसिद्ध अषिक विलम्ब न करके उसके हाथ पकड़कर शय्यागृहकी ओर ले गया।