Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 714
________________ २६० भरतेश वैभव किया । उन दोनों भाइयोंने स्पष्ट निषेध किया । अब तीनोंने विचार किया कि अकीति और जादिरा सी परिस्थिति समझाकर अपने तोनों दीक्षित होंगे। तीनों ही अयोध्याकी ओर रवाना हुए ! उनके साथ अगणित सेना नहीं, गाजा-बाजा भी नहीं, सुन्दर अलंकार भी नहीं हैं। सर्वशृंगारोंसे रहित होकर वे अयोध्यानगरी में प्रविष्ट हुए । पिताके रहनेपर तो उस नगरकी शोभा ही और थी। अब तो वह नगर बिलकुल शून्य मालूम हो रहा है। इन पुत्रोंको बहुत दुःख हआ। वे कहने लगे कि इस नगरमें रहनेको अपेक्षा अरण्यमें रहना अधिक सुखकर है। हाय ! पिताजी अपने साथ ही नगरकी सम्पत्तिको भी लूट ले गये ! नहीं तो उनके अभावमें इस नगरको यह हालत क्यों हुई ? अयोध्या नगर. की यह हालत हुई, इसमें आश्चर्यको क्या बात है। सारे देश ही कलाहीन हो गया है | इस दुःखके साथमें भरतेश की राज्यशासन महत्तापर भी गर्व करने लगे। आगे बढ़ते हुए सामने कांतिविहीन रत्नगोपुर उनको दृष्टिगोचर हुआ । उसे देखकर और भी आश्चर्यचकित हुए कि पिताजीके साथ ही इसका मी शृंगार चला गया। इस तेजविहीन राजभवन में एवं प्रजाओंके आँसूसे द्रवित अयोध्या में हमारे भाई अकंकोति आदिराज अभीतक ठहरे रहे, यह आश्चर्यको बात है । दरसे ही जब तीनों कुमार अकौतिकी ओर आ रहे थे तब पास में बैठे हुए लोगोंसे अर्कको तिने पूछा कि यह कौन है ? फिर जब पास आये तो मालम हुआ कि ये मेरे भाई हैं। पिताजीके चले जानेपर राजठीविको उन्होंके साथ इन्होंने रवाना किया मालूम होता है। पिताजो जब थे तब जब कभी ये कूमार आते तो बहुत वैभव व शृंगारके साथ आते थे। इनके शृंगारको देखनेका भाग्य पिताजोको था । परन्तु मेरा भाग्य तो दारिद्रय. रससे युक्त भाइयोंको देखनेका है । हाय ! दुःखकी बात है। समीप आकर भाईके चरणोंमें तीनोंने मस्तक रखा एवं तीनों कुमार मिलकर दुःखसे रोने लगे। भाई ! पिताजीको कहाँ भेजा ? हमें अगर पहलेसे कहते तो क्या कुछ बिगड़ता था? हमने तुम्हारा ऐसा कोनसा अपराध किया था ? इस प्रकार पादस्पर्श कर रोने लगे। अकीतिके आँखोंमें भी पानी भर आया। तीनों कुमारोंको उठाते हुए कहने लगा कि भाई मेरी गलती हुई, क्षमा करो। उन कुमारोंने मादिराजको नमस्कार किया। दुःखोदयके साथ उसने आलिंगन दिया।

Loading...

Page Navigation
1 ... 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730