Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 721
________________ भरतेश वैभव २६७ सर्वमोक्ष संधिः प्रतिनित्य आते हुए अपने बन्धुओंका योग्य सत्कार कर राजेन्द्र अकंकीति भजते रहे। एक दिन राजसभामें सिंहासनासीन थे, उस समय एक नवीन समाचार आया । विमलराज, भानुराज और कमलराजने अपने पुत्र कल के साथ दीक्षा ली है, यह समाचार मिला । अपने भानजोंको सांत्वना देने के लिए जब धे अयोध्यामें आये थे, उसी समय महलमें चक्रवर्तीकी सम्पत्तिको देखकर उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ था इसी प्रकार अर्ककीतिके बांधवोंमें बहुतसे लोगोंके दीक्षित होनेका समाचार उसी समय मिला। अकंकोति और आदिराजके हृदय में भी विरक्ति जागत हई। भाईके मुखको देखकर अर्फकोति हंसा और आदिराज भी उसके मुखको देखकर हैसा । एवं कहने लगा कि हमारे सर्व बांषय आगे चले गये। अब हमें विलम्ब क्यों करना चाहिये । हमें धिक्कार हो। ___अर्ककोतिने भाईसे कहा कि तुम ठोक कहते हो । तुम कोई सामान्य नहीं। कैलासनाथके वंशज हो। मैं हो अभी तक फंसा हुआ है । अब मैं भी निकल जाऊँगा, देखो ! पिताजीकी नवनिधि, चौदह रत्न एवं अपरिमित सम्पत्ति जब एकदम अदुल्य हुई तो इस सामान्य राज्यपदपर विश्वास रखना अधर्मपना है मेरे प्रभुने रहते हुए युवराज पदमें जो गौरव था, वह मुझे आज अधिपराजपदमें भी नहीं हैं। इसलिए मेरे इस गौरवहीन अधिराजपदको जलाओ । इसको धिक्कार हो। पहले पखंडके समस्त राजेन्द्र आकर हमारी सेवा करते थे । अब तो केवल अयोध्याके आसपास के राजा ही मेरे अधीन हैं क्या इसे महत्वका ऐश्वर्य कहते हैं ? धिक्कार हो! जिस पिताने मुझे जन्म दिया है। उसकी आशाका उल्लंघन न हो इस विचारसे मैंने भूभारको धारण किया है। यह राज्यपद उत्तम है, इसमें सुख है, इस भावनासे मैंने ग्रहण नहीं किया, अब इसे किसीको प्रदान कर देता हूँ। घासकी बड़े भारी राशिके समान सोनेको राशि मौजूद है। घासके बड़े पर्वतके समान हो वस्त्राभूषणोंका समूह है । परन्तु उन सबको अर्कफीतिने घासके ही समान समझा। सुपारीके पर्वतके समान आभरणोंका समूह है । समुद्रतटकी रेतीके समान धान्यराशि है। परन्तु इन सबकी कीमत अब अर्ककी तिके हृदय में एक सूखी सुपारीके अर्धभागके बरावर भी नहीं है । _ - S A MPILA---

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