Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 729
________________ भरतेश पेमव को छोड़कर मैं रहता था। परन्तु स्वा-पीकर मस्त भट्टारकोंके समान वे अनेक भारोसे युक्त होनेपर भी भवसेन गुरुके समान बोलते थे। __ शरीरमें स्थित भारमाको नग्नकर उसका मैं निरीक्षण करता था । परन्तु वे शरीरको नग्नकर आत्माको अंधकारमें रखते हुए दुनिया में फिर रहे थे। किसी भी प्रयत्नसे भी वे मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सके और उल्टा इनको ही निदा लोकमें होने लगी तो उस दुःखसे वे अज्ञानी मेरे काव्यकी निंदा करने लगे । सूर्यको तिरस्कृत करनेवाले उल्लूके समान तर्क पुराण आदिके बहाने मेरो कृतिको निदा करने लगे। मैं तो उनकी परवाह न कर मौनसे हो रहा, परन्तु विद्वान व राजाओंने हो उनको दबाया ! ध्यानमें जब गिल नहीं लगा हेरे आननीयती नुद्धि के लिए मैंने काव्यको स्चना को; किसोके साथ ईर्षा व स्पर्धाके वशीभूत होकर ग्रन्थका निर्माण नहीं किया । इसलिए मौनसे ही रहा । हसनाथकी शक्तिसे विरचित काव्यको लोकादर मिलनेमें संक्षय क्या है ! मेरो सूचनाके पहिले ही विद्वान्, मुनिगण व राजाधिराज इसे चाहकर उठा ले गये। कवि-परिचय मुझे लोकमें क्षत्रिय वंशज, कर्नाटक क्षेत्रका अण्ण कहते हैं, परन्तु यह सब मेरे विशेषण नहीं हैं, इनको मैं अपने शरीरका विशेषण समझता हूँ। में सिद्धपदके प्रति मुग्ध हूँ इसलिए रत्नाकरसिद्ध कहने में कभी कभी मुझे प्रसन्नता होती है। शुद्धनिश्चयः विचारमें निरंजनसिद्ध ही मैं कहलाता हूँ। जन्म मरण रोग शोकादिकसे युक्त माता-पिताके परिचयसे अपना परिचय लोग कराते हैं। परन्तु मैं तो श्रीमंदरस्वामीको अपने पिता कहने में आनन्द मानता हूँ । मेरे जीवन में एक रहस्य है, सिद्धान्तके तत्वको समानकर, लोकमें विशेष गलबला न करते हुए उसका मैं आचरण करता हूँ चरित्रमें प्रतिपादित रहस्य कोई विशेष नहीं है। आत्मरहस्य और भी अधिक हैं। उसे कोई सीमा नहीं है। मेरे दीक्षा गुरु चारुकीर्ति योगी हैं, मोक्षायगुरु हंसनाथ हैं। यह अक्षुण्णभव्य रलाकरसिद्ध व्यवहार निश्चयमें अतिदक्ष हैं। देशिंगणाग्रणि चारुकोाचार्य ने जब दोक्षा दी तो श्री गुरु हंसनाथने उसमें प्रकाश देकर मेरो रक्षाकी। गुरु हसनाथको कृपाले सिवान्तके सारको समझकर आत्म

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