Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 708
________________ २५४ भरतेश वैभव दिव्यशरीरकी कांतिसे शृङ्गारसिद्धको भी फीका कर देगी, इस ठौबिसे वह सुन्दरी आगे बढ़ रही है। चन्द्रसूर्योकी कांति तो उसकी दासियोंके पारीरमें भी है, परन्तु यह तो कोटिचन्द्रसूर्योकी कांतिसे युक्त है । ___कामिनियोंको वशमें करनेवाले कामदेव तो उस देवीके निवास प्रदेशमें प्रवेश करनेके लिए अयोग्य है । उस मुक्तिकांताको दासियां अपनी दृष्टि से हजारों कामदेवोंको वश में कर सकती है। दिव्यपादसे लेकर मस्तकतक संजीवन अमृत ही भरा पड़ा है । उसे जन्म, जरा, मरण नहीं है । अतएव अमृतकामिनीके नामसे उसका उल्लेख करते हैं। नर, सुर, नाग लोकको उत्तम स्त्रियो उसको चरणदासियाँ हैं। पादांगुष्ठको विशामें हैं। बार परमात्मा ही जाने उस अमृतकांताके सौंदर्यको कोन वर्णन कर सकता है ? वह अमृतकामिनी विलासके साथ वीरभरतेश्वरके स्वागतके लिए आ रही है, इधर यह शृङ्गारसिद्ध बहुतवैभवके साथ आ रहा है ? तीन लोककी उत्तमोत्तमस्त्रियोंको भोगकर उनसे तिरस्कार उत्पन्न होनेपर तीन शरीरोंका जिसने नाश किया, केवल चित्प्रकाशको ही शरीर बना लिया है, वह शृङ्गारसिद्ध पा रहा है । इधर उधर फिरकर देखनेकी दृष्टि वहाँपर नहीं है चारों ओरको बातोंको स्पष्ट देखने व जाननेको सामर्थ्य उस परमात्मामें विद्यमान है । पुनः न्यूनताको न प्राप्त होनेवाला यौवन है। तीन लोकको व्याप्त होनेवाला प्रकाश है । करोड़ों इन्द्र, करोड़ों नागेन्द्र, करोड़ों नरेन्द्र एवं करोड़ों कामदेवोंकी संपत्ति व लावण्य मेरे रादांगुष्ठमें निहित है, इस बातको व्यक्त करते हुए वह आ रहा है । यह वीर बुद्धिमान् है, सुन्दर है, तीन लोकको उठानेकी सामर्थ्य रखता है। महासुखो है, मुक्तिसतीको इसे देखते ही हार खानी पड़ेगी, इस प्रकारके वैभवसे वह वहाँ आ रहा है। उसके साथ कोई नहीं है, वह श्रृंगारसिद्ध अकेला है। बोरतापूर्ण ठोविमें आगे बढ़कर उसने मुक्तिकांताको देखा तो मुक्तिकांताने भो शृङ्गार सिवको देख लिया। दोनोंको एकदम रोमांच हुआ। आनंदपरवश होकर दोनों मूर्छित होना चाहते थे, इतनेमें परब्रह्म शक्तिने उस मू को दूर किया । तत्काल सरस्वतीदेवीने उसे जागृत किया एवं कहने लगी कि अपने पतिकी आरती उतारो तब उस देवोने शृंगारसिद्धिका चरणस्पर्श किया । एवं पतिके सामने खड़ी हो गई। परिवारदेवियां कलश

Loading...

Page Navigation
1 ... 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730