Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 710
________________ २५६ भरतेश वैभव अब सब दासियाँ बाहर रह गई। उस शय्यागृहमें दोनों ही प्रविष्ट हो गये । वहाँपर वे दोनों योगो या परमभोगी निर्वाणरतिके आनन्दमें मनके अभिलाषाको तृप्ति होनेतक मग्न हो गये। परम सम्यक्त्वका शय्यागृह है। अगुरुलघु ही वहाँपर चंदोबा है। अध्यानाधरूपो परदा वहाँपर मौजूद है । उसके अन्दर वे चले गये । अनन्तदर्शनरूपी दीपक हैं, अनन्तवीर्यसनी पलंग है। सूक्ष्मगुणरूपी सुन्दर तकिया है। अबगाह्नगुणरूपी मृदुतल्प ( गादी) है। वहाँपर सुज्ञान संयुक्त दोनों सुन्दर भोगी भोगमें मग्न हो गये। शरीरके अन्दर प्रविष्ट हो जाय इस प्रकार एकमेकको आलिंगन देकर शक्करसे मोठे ओठोंसे जुम्बन ले गहे हैं ' RIT गुरु आपके साथ उन दोनोंने संभोग किया । आनन्दसे चुम्बनके समय परस्पर ओठको स्पर्श कर रहे थे, तो करोड़ों क्षीरसमुद्रोंको पीनेका आनन्द आ रहा है। जब मुक्तिदेवीके स्तनोंको हाथसे पकड़ रहा है तो तीन लोकका वैभव हाथ आया हो इतना आनन्द उम शृङ्गारसिद्धको हो रहा है। उसके मुखको देखते हुए तीन लोकके मोहनस्वरूपको देखने के समान आनन्द हो रहा है। उसकी स्मितनेत्रोंको देखनेपर तो अरबों खरबों कामदेवोंके दरबार में बैठे हुएके समान आनन्द आ रहा है। सुन्दर, शकटी, प्रौढभुज, मृदु जंघाओंको स्पर्श करते हुए जब वह भोग रहा है तो तीन लोकमें मोहमरस लबालब भरनेके समान आनन्द आ रहा है 1 लावण्य भरे हुए उसके रूपको देखनेके लिए और उसके मनोभावको जानने के लिए केवलज्ञान और केवलदर्शन ही समर्थ है। इन्द्रियोंकी शक्ति वहाँतक पहुंच नहीं सकती है। सरससल्लाप, चुम्बन, योग्य हास्य, नेत्रफटाक्षक्षेप, प्रेम व आलिंगन आदिके द्वारा वह मुक्त्यांगना उस सिद्धके साथ एकीभावको प्राप्त हो रही है। इन्द्रकी शचो, नागेन्द्रको देवो, चक्रवर्तीकी पट्टरानीमें जो इन्द्रिय सुख होता है उसे वह तिरस्कृत कर रही है। उसकी बराबरी कौन कर सकते हैं ? अब वह शृंगारसिद्ध अनंतजन्मोंमें तीन लोकमें सर्वत्र अनुभूत सुखको भूल गया । मुक्तिकान्ताके सुखमें वह परवश हुआ। विशेष क्या? वह उसके साथ अद्वैतरूप बन गया। मोहके वशीभूत होकर अनेक जन्मोंमें अनेक स्त्रियोंके साथ भोगकर भी वहाँपर तृप्ति नहीं हुई। परन्तु सस अलकान्ताके भोगनेपर वह तृप्त

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