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मरतेश वैभव दुख मत करो, तुम्हें हमारा शपथ है । हे माणिक्यदेवी ! मन्द्राणि ! चन्द्राणि ! कल्याणजी ! मधुमाधवाजी! जाणाजी ! काँचन माला ! आओ ! दुख छोड़ो ! इस प्रकार कहते हुए उनको भरतेश्वरने आलिंगन दिया । मन्गलवति ! मदनाजी ! रलावती ! श्रृंगारवती ! पुष्पमाला ! भंगलोचना ! नीललोचना ! आप लोग पूत्रों के शोकको भूल जाओ ! उनको सांत्वना देते हुए भरतेश्वर उनके केशपाशको बाँध रहे हैं, शरीरपर हाथ फिराते हुए आँसुओंको पोंछ रहे हैं 1 मोठे-मीठे बोल रहे हैं। एवं फिर उसी समय आलिंगन देते हैं। इस प्रकार उन स्त्रियोंको संतुष्ट करनेके लिए रवरी
इ न फिर उन्होंने पुनः कहा कि देवियों ! आप लोग दु ख क्यों करती हैं ? यदि आप लोगोंने मेरी सेवा अच्छी तरहसे की तो मैं पुनः आपलोगोंको बच्चा दे दूंगा। आप लोग चिन्तान करें। इसे सुनकर वे स्त्रियाँ हँसने लगीं।
तब वे स्त्रियाँ सम्राटो यह कहकर दूर खड़ी हुई कि देव ! रोने. वालोंको हंसानेका गुण आपमें ही हमने देखा ! जाने दीजिये। आपको हर समय हँसी ही सूझती है ! बाहर जब आप जाते हैं तब बड़े गम्भीर बने रहते हैं। परन्तु अन्दर आनेपर यहाँपर खेल-कूद सूझतो है। छोटे बच्चोंके जानेपर भी आपको दुःख नहीं होता है। आपका वचन ही इस बातको सूचित कर रहा है। ___ भरतेश्वर तब कहने लगे कि आपलोग दुःख कर रही थी इसलिए हसाने के लिए विनोदसे एक बात कह दी दुःख तो मुझे भी होता है। परन्तु अब रोनेसे होता क्या है ? आपलोगोंको एक एकको एक-एक पुत्र वियोगका दुःख है । परन्तु मुझे तो एकदम सौ पुत्रोंके वियोगका दुःख है । मेरा दुःख अधिक है या आप लोगोंका ? तथापि मैंने सहन कर लिया है। दूसरी बात मेरी रानियोंको एक-एक पुत्रके सिवाय दुसरा पुत्र हो ही नहीं सकता है, यह दुनिया जानती है। फिर भी उपकार व विनोदसे मैंने यह बात कह दो, दुःख मत करो।
इस प्रकार रानियोंको संतुष्ट कर अपनी-अपनी महलमें मेजा व मरतेश्वर स्वयं आनन्दसे अपने समयको व्यतीत करने लगे।
सत्रमुचमें भरतेश्वर महान पुण्यशाली हैं। वे दुःखमें भी सुखका अनुभव करते हैं। जंगलमें भी मंगल मानते हैं। यही तो विवेकीका कर्तव्य है। सर्वगुणसम्पन्न सौ पुत्रों के वियोगका वह दुःह सामान्य नहीं था। तथापि वस्तुस्वरूपको विचार कर उसे भूलना, भुलाना यह