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गर्मी सविधिसागर जी
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भरतेश वैभव है, सम्राट आगेसे जा रहे हैं। लोग आश्चर्यचकित होकर इस दृश्यको देख रहे हैं।
हाय ! हमारे स्वामीको सम्पत्ति तो इन्द्रधनुष के समान दिखकर अदृश्य हो गई। संसारी प्राणियोंके सुखके लिए धिक्कार हो, इस प्रकार नगरमें सर्वत्र चर्चा हो रही थी।
बुढ़ापा न पाकर तुमने आजतक जीवन व्यतीत किया, अपनो त्रियों को जरा भी दुःख कभी नहीं दिया । परन्तु आज तो चुपचाप जंगलको जा रहे हो, कितने आश्चर्यकी बात है नगरमार्गसे जाते हुए कभी आपको हम देखती हैं तो हमें स्वर्गसुखका ही आनन्द मिलता है। हाय ! परन्तु अब तो हमारी सम्पत्ति चली जा रहो है। स्त्रिया, पुत्र व पुत्रवधू आदिको तुमने षर्खडको वश कर प्राप्त किया था, अब तो उन सबको लेकर आप तपके लिए जा रहे हैं । हाय ! इस प्रकार वहाँ स्त्रियाँ दुःख कर रही थीं। शोक करनेवाले नगरवासियोंको न देखकर सम्राट अपने निश्चयसे परिवार के साथ भयंकर जंगल में पहुँचे । वहाँपर एक चन्दनका वृक्ष था। उसके मूलमें एक शिलातल था वहाँपर भरतेश पालकोसे उतरे, वहाँ उपस्थित लोगोंने जय-जयकार किया । उस शिलातलपर खड़े होकर एक बार सबको ओर दुष्टि पसार कर देखा । म्लानमुखसे उन लोगोंने नमस्कार किया। पासमें अकीति और आदि राजा भी थे | उनका भी मुख फोका पड़ गया था। परन्तु बाकोके पुत्र तो हंस रहे थे। अर्थात प्रसन्नचित्त थे। उनको देखकर सम्राट्को भी हंसी आई। मित्रगण प्रसन्न थे | अनेक राजा भी प्रसन्न थे । भरतेश समझ गये कि ये सब दीक्षा लेनेवाले हैं। स्त्रियों की पालकियां भी आकर एकत्रित हुई । अब शृंगारयोगी भरतेश ने दीक्षा लेनेके लिए अंतरंगमें तैयारी की। समस्त परिवारको दूर खड़े होनेके लिए इशारा करके अपने पुत्र, मित्र, मंत्री आदि जो समीप थे उनसे एक परदा धरनेके लिए कहा एवं स्वयं दीक्षाविधिके लिए सन्नद हुए।
भरतेशका आत्मबल अचित्य है। उनका पुण्य अतुल है । वह लघुकर्मी है । जोवनके अंत समयतक सातिशय भोगको भोगकर समयपर अपने पायुष्यको पहिचानना एवं अपने आत्महितकी ओर प्रवृत्त होना यह अलौकिक महापुरुषोंका ही कार्य है। हर एक मनुष्यके लिए यह साध्य नहीं है।
धान प्रातःकाल दरबारमें पहुँचनेतक सम्राट्को मालूम नहीं था कि