Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 686
________________ २३२ भरतेश वंभव नहीं है फिर इन आभरणोंसे क्या तात्पर्य है ? इस प्रकार उन वस्त्राभरणोसे मोह हटाकर शरीरसे उनको अलग किया । कोरिनन्दाताका फाश मर आत्मामे है । फिर इस जरासे प्रकाशसे युक्त शरीरशोभासे क्या प्रयोजन? यह समझते हुए सर्व परिग्रहोंका परित्याग किया। बाद में केशलोंच किया। भगवान आदिनाथको केशोके होते हुए कर्मक्षय हुआ, तथापि उपचारके लिए केशलोंचको आवश्यकता है। इस विचारसे उन्होंने केशलोंच किया। उसे केशलोंच क्यों कहना चाहिए । मनके संक्लेशका ही उन्होंने लोंच किया । वह शूर भरतयोगी आँख मींचकर अपनी आत्माकी ओर देखने लगे, इतनेमें अत्यन्त प्रकाश. युक्त मनःपर्ययशानकी प्राप्ति हुई। ___ अब मुनिराज भरत महासिद्ध बिधके समान निश्चल आसनसे विराज कर आत्म निरीक्षण कर रहे हैं | बाह्यमामग्री, परिकर वगैरह अत्यन्त सुन्दर हैं। ध्यानमें जरा भी चंचलता नहीं है, वे आत्मामें स्थिर हो गये हैं। जिस प्रकार बाह्यसाधन शुद्ध है उसी प्रकार अंग भिन्न है, आत्मा भिन्न है, इस प्रकार भेद करके अनुभव करनेवाला अन्तरंगसाधन भी परिशुद्ध रूपसे उनको प्राप्त है। अतएव भंगुरकर्मोंको अष्टांगयोगमें रत होकर भंग कर रहे हैं! योगी अपने आपको देख रहा था। परन्तु उससे घबराकर कर्म तो इधर-उधर भागे जा रहे हैं । जैसे-जैसे कर्म भागे जा रहे हैं आत्मामें सुज्ञानप्रकाशका उदय होता जा रहा था। कमरेणु अलग होकर जब आत्मदर्शन होता तो ऐसा मालूम हो रहा था कि जमीनमें गड़ी हुई रत्नको प्रतिमा मिट्टीको खोदनेपर मिल रही हो। कल्पना कीजिये, मुसलधार दृष्टिके बरसनेपर मिट्टीका पर्वत जिस प्रकार गल-गल कर पड़ता है, उसी प्रकार परमात्माके ध्यानसे कमपिंड गलता हुआ दिखाई दे रहा था। जलती हुई अग्निमें यदि लकड़ी डाले तो जैसे वह अग्नि बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार कर्मों के समूहके कारण वह ध्यानरूपी अग्नि भी सेज हो गई है। घोरकर्भ हो काष्ठ है, शरीरही होमकुण्ड है, ध्यान ही अग्नि है। इस दीक्षित धीरयोगीने उस होमके द्वारा संसाररूपी शत्रुको नाश करने का ठान लिया है। दोनों आँखोंको भींचनेपर भी उन्होंने सुशानरूपी बड़े

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