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भरतेश वैभव नेत्रको खोल दिया है वह नेत्र अग्निस्वरूप है। उसके द्वारा कमबैरोके निवासस्थानभूत तीन शरीररूपी तीन नगरोंको जलानेका कार्य हो रहा है। प्रलयकारती सौनः लि. का लेके समस्त पदार्थ जलकर खाक हो जाते हैं, उसी प्रकार उस तपोधनके ध्यानाग्निके द्वारा कर्म जलकर खाक हो रहा है एवं अपने स्थानको छोड़ रहा है। वह प्रतापी दिग्विजयके समय विजयाध में वनकपाट को तोड़कर अन्दरसे निकली हुई भीषण अग्निको घोडेपर चढ़कर जिस प्रकार देख रहा था उसी प्रकार कर्मकपाटको तोड़कर अपने भावोंमें खड़े होकर उस कर्मको जलानेवाले अग्निको देख रहा है।
दिग्विजयके समय काकिणी रत्नके द्वारा गुफाके अन्धकारको निराकरण किया था, उस बातको मालूम होता है कि यह भरतयोगी अभी भूल नहीं गया है। अतएव उसका प्रयोग यहाँ भी कर रहा है, यहाँ पर ध्यानरूपी काकिणीरलसे देहरूपी गुफा में महान् प्रकाश व्याप्त हो रहा है।
भरतेशने संसारसे विरक्त होकर चकरत्नका परित्याग किया तो यहां ध्यानचक्रका उदय हआ। अब आगे शक ( देवेंद्र ) आकर इसकी सेवा करेगा। एवं मुक्ति साम्राज्यका अधिपति बनेगा। सो हमेशा वैभव हो वेभव है । आश्चर्य है, मुनिकुलोत्तम भरत ध्यान पराकमसे हसनाथ (परमात्मा ) को दे रहा है। उसी समय कर्मका विध्वंस हो रहा है एवं आत्मांशु (कांति ) बढ़ता ही जा रहा है ।
जिस प्रकार बांधको तोड़नेपर रुका हुआ पानो एकदम उतरकर चला जाता है, उसो प्रकार बंधको तोड़नेपर का हुआ कमंजल निकलकर चारों ओर जाने लगा । मस्तकपर रखे हुए धान्यकी पोटरोसे कुछ धान्य निकालनेपर वह थोड़ी-सी हलकी हो जाती है उसी प्रकार कमौका संश कुछ कम होनेपर योगीको अपना भार कम हुआ-सा मालूम होने लगा। कई परदोंके अन्दर रखे हुए दोपक, जिस प्रकार एक-एक परदेके हटनेपर अधिक प्रकाशयुक्त होता है उसी प्रकार कर्मोंके यावरणके हटनेपर यात्मज्योति बढ़ती गई एवं बाहर भी उसकी कांति प्रतिबिंबित होने लगी । पहिले अक्षरात्मक ध्यानसे रत्नमालाके समान आत्माका अनुभव कर रहा था, अब वह नष्ट हो गया है। केवल आत्मनिरोक्षणका ही कार्य हो रहा है । पहिले षम्यंज्यान था, इसलिए उसमें अत्यधिक प्रकाश नहीं था, और पदस्थ पिंडस्थादि अक्षरात्मक रूपसे उसका विचार हो रहा था । परन्तु अब उस योगीके हृदयमें परम शुक्लध्यान है, उसमें