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भरतेश वैभव
प्रकारका विकल्प था। परन्तु ध्यानकी विशुद्धिमें वह विकल्प भी दूर हो गया है । अब तो वह योगो निर्विकल्पक समाधिमें मग्न है ।
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कर्म तो क्रम - क्रमसे ढीले होकर गिरते जा रहे हैं । आत्मविज्ञान बढ़ता जा रहा है । वह तपोधन जब एकाग्रचित्त से ध्यानमें अविचल होकर रहा तो तीन लोक कंपित होने लगा । चंचल मनको अत्यन्त निश्चल बनाकर आत्मामें उसे अन्तलन किया । वह वोर आत्मध्यानमें मग्न हुआ तो तीन लोक काँपे इसमें आश्चर्य क्या है ? उस समय स्वर्ग में देवेन्द्रको शचीमहादेवी पुष्प दे रही थी। उस समय बैठे हुए मंचके साथ वह पुष्प भी एकदम कंपित हुआ तो देवेन्द्रने कारणका विचार किया और अपनी देवीसे आश्चर्य के साथ कहने लगा कि भरतेश मुनि हो गया है। धन्य है ! अधोलोक में धरणेन्द्रका आसन कम्पायमान हुआ तो उसकी देवी घबराकर पतिको आलिंगन देकर खड़ी हुई, तब धरणेन्द्रने अवधिके बलसे विचार किया और भरतेश के मुनि होनेका समाचार अपनी देवोको सुनाया ।
एक स्थानमें एक पत्थरके ऊपर सिंह था, वह पत्थर एकदम कम्पित हुआ तो पत्थरके साथ सिंह उल्टा सिर करके पड़ गया एवं घबराकर एक जगह खड़ा रहा। जिस प्रकार आंधी चलनेपर वृक्षलतादिक हिल जाते हैं उसी प्रकार यह भूलोक ही एकदम कंपित होने लगा भरतेशकी ध्यान सामर्थ्यका कहाँतक वर्णन कर सकते हैं ?
भोगमें रहकर जिस वीर सम्राट्ने व्यंतर, विद्याधर आदियोंके मस्तकको अपने चरणों में झुकवाया वह योगमें रत होकर तीन लोक में सर्वत्र अपना प्रभाव डाले इसमें आश्चर्य क्या है ?
आत्मज्योति बराबर बढ़ रही थी, इधर कर्मरेणु ढोले होकर निकल रहे थे। उसे आगम में श्रेण्या रोहण के नामसे कहते है। उसका भो वहाँपर वर्णन करना प्रासंगिक होगा। सिद्धांत में चौदह गुणस्थानों का कथन है | परन्तु अध्यात्म दृष्टिसे उन चौदह गुणस्थानोंके तीन ही विभाग हो सकते हैं । बहिरात्मा और अन्तरात्मा और परमात्मा के भेदसे तीन ही विभाग करनेपर चौदह गुणस्थानों में विभक्त सभी जीव अन्तर्भूत हो सकते हैं । पहिले तीन गुणस्थानवाले बहिरात्मा के नामसे पहिचाने जाते हैं । आगेके तो गुणस्थानवाले अर्थात् १२वें गुणस्थान तकके जीव अन्तरात्मा कहलाते हैं । और अन्तके दो सयोगकेवली व अयोगकेचली परमात्मा कहलाते हैं । इस प्रकार वे चौदह गुणस्थान इन तीन भेदोंमें अन्तर्भत होते हैं।