Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 699
________________ भरतेश वैभव २४५ परमोदारिक दिव्य शरीरमें भरे हुए क्षीरसमुद्रको इस भूमि से सुरलोकके अग्रभाग तक उठानेकी भावना उस समय उस महात्मा के हृदय में थी । 1 आयुष्य कर्मकी स्थिति कम थी। परन्तु शेष नाम गोत्र व वेदनीयको स्थिति अधिक थी । इसलिए काँटछाँटकर उनकी स्कोअ बराबर करूंगा, इस हेतुसे उस समय चार समुद्घातकी ओर दृष्टि गई । उत्तम सोनेको जिस प्रकार कोवेसे अलग करनेपर वह अलग हो जाता है, उसी प्रकार इस आत्माकी स्थिति उस समय थी। वह परमात्मा जिस प्रकार आदेश दे रहा था उसी प्रकार उसको हालत हुई। सुवर्ण भिन्न है, उसे निकालनेवाला भिन्न है । यह उदाहरण केवल उपचार रूप है | यहाँपर आत्मा ही निकालनेवाला और आत्मा हो निकलनेवाला है । सबसे पहले आत्माको दण्डाकार के रूपमें परिवर्तन किया। यह आत्मा शरीरसे निकलकर त्रिलोकरूपी जहाजके स्थिर स्तम्भके समान सोन लोक में दण्डके समान व्याप्त हुआ। उस शिलातलपर तेजसकार्मणसे युक्त होकर बाह्य शरीर जरूर था, परन्तु निर्मल आत्मा तीन लोक में दण्डस्वरूप में व्याप्त होकर था। ओदारिक त्रिगुणधन होकर वह उस समय आद्यंत था, तथापि स्पष्ट कहें तो १४ रज्जु परिमित लोकाकाशमें नीचेसे ऊपरतक वह आत्मा व्याप्त हो गया है । उसीको कपाटरूपमें परिणत किया। वह उस समय लोकके लिए एक दरवाजेके समान मालूम हो रहा था। उस समय दक्षिणोत्तर सात रज्जु चोड़ाईसे और मोक्षसे पाताल लोक तक चौदह रज्जु लम्बाईसे वह आत्मा व्याप्त हो गया । उसके बाद प्रतर क्रियाको ओर वह आत्मा बढ़ा तो तीन वातवलयोंके भीतर वह आत्मा तीन लोक में कुम्भमें भरे हुए दूधके समान सर्वत्र भर गया । उसका क्या वर्णन करें ? सुबहको धूप शुभ्र व्याकाश प्रातःकालमें व्याप्त हिमपुंज, अथवा रात्रिकी चौदनी आदि जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त होते हैं, उसी प्रकार यह आत्मा उस समय तीन लोक में व्याप्त हो गया। आगे लोक पूरणके लिए वह आत्मा बढ़ा तो तीन बातवलयों में व्याप्त हुआ । लोक सर्वत्र उस समय शुद्धात्मप्रदेश से व्यापृत हुआ है । लोग कहते हैं कि भगवानके पेटमें त्रिलोक था, शायद यह कथन तभोसे प्रचलित हुआ है । लोकाकाशको उस समय अनन्तशान व अनन्तदर्शन से व्याप्त किया

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