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भरतेश वैभव
२५१ थी? हमारे खास माता-पिताओंके प्रेमको हम नहीं जानते हैं। उसे भुलाकर आपने ही हमारा पालन-पोषण किया । बड़े भारी वैभवपद में हमें प्रतिष्ठित किया, संतोषके साथ हमारे जीवनक्रमको चलाया। पिताजी ! अन्तमें इस प्रकार क्यों किया? इस संपत्ति के लिए षिक्कार हो। आपके हो हाथसे दीक्षा लेनेका भाग्य भी हमे नहीं मिला । हमें तिरस्कार कर आप चले गये, हमें धिक्कार हो" इस प्रकार तीनों कुमार दुःस्वी हो रहे थे।
इधर अर्ककीर्ति आदिराज गंधकुटीसे लौटकर अपनी सेनाको छोड़कर नगरमें प्रविष्ट हुए। नगरमें सर्वत्र सन्नाटा छाया हुआ था। प्रजाओंको आंखोंसे आँसू बह रहा था। इन सब बातोंको देखकर दोघं निश्वास छोड़ते हुए महलको और आगे बढ़े, वहाँपर सम्राटके सिंहासनको देखकर तो उनका शोक दबा नहीं रहा, एकदम वे शोकोद्रिक्त हुए। आँसू बहने लगा । जोर जोरसे रोने लगे। स्वामिन् ! हम दुर्दैवी हैं। इस प्रकारका वचन एकदम उनके मुखसे निकला।
पिताके सुन्दर रूपको उन्होंने वहाँ नहीं देखा तो उनका धयं ढीला हुआ ! तेज पलयित हुआ, वचनका चातुर्य नष्ट हुआ । सूर्य के रहनेपर भी रात्रिके समान मालूम होने लगा।
पिताजी ! आप कहाँ हो, षट्खंडके समस्त राजा लेकर खड़े हैं। उसे आप स्वीकार कीजिये। तुममें कभी आलस्यको हमने देखा ही नहीं। तुम्हारे दरबारमें रिक्तता कभी नहीं थी, लोगोंका आना हर समय बना रहता था। अब तो यह बिलकुल सूनासा मालूम हो रहा है। इसे हम कैसे देख सकते हैं ? आपको हम यहाँ नहीं देखते हैं, साथमें हमारे बहुतसे. सहोदर भी यहां नहीं है। रनके महलमें भी अब कान्ति नहीं रहो, अब हम किसके शरणमें जायें !" इस प्रकार बनेकविधसे दुःख कर पुनश्च वस्तुस्थितिको समझकर अपने आत्माको सांस्कन किया । मरतपुत्रोंको यह सहजसाध्य है।
सेवकोंको एवं आप्तजनोंको अपने-अपने स्थानोंमें भेषकर दोनों कुमार महलमें प्रविष्ट हुए। वहाँपर रानियों दुःखसमुद्रमें मग्न हो रही थी। 'स्वामिन् ! स्त्रियोंके अपारसमूह यहाँसे चला गया, अब तो हम लोग यहाँ रहे हैं। हमें तो यह महल नहीं राक्षसभुवनके समान मालूम हो रहा है, इसमें हम लोग कैसे रह सकती हैं ? उनके साथ ही हम लोग भी पली जातीं तो हमें परमसुख प्राप्त होता । हमारा यहाँ रहना उचित नहीं