Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 685
________________ भरतेश वैभव २३१ मेरे आयुष्यका अन्त हो चुका है । मेरे घातिया कर्म जर्जरित हो चुके हैं । आज मुझे घातिया कर्मोको नष्ट करना है। कल प्रातःकाल सूर्योदय होते ही शेष सर्व कर्माको नष्ट करके सिद्ध लोकमें पहुँचना है। अन्तःपुरसे दरबारमें आनेतक उनको यह मालूम नहीं था। परन्तु अकस्मात् दरबार में आनेपर उनको यह सब दृष्टिगोचर हआ। उन्होंने अपने आत्महितको पहिचान लिया । देखा कि अब देरी करनेसे लाभ नहीं । उस समय राज्य का लोभ नहीं । रानियोंकी चिता नहीं, पुत्रोंका मोह नहीं । हजार वर्ष के अभ्यस्त योगिके समान निकलकर चला जाना सचमुच में आश्चर्यकी बात है । भरतेश सदा इस बातको भावना करते हैं हे परमात्मन् ! तुम तो अदृश्य पदार्थोको भी दृश्य कर वेनेवाले परज्योति हो। इसलिए सदा प्रज्वलित होते हुए मेरे हृदयरूपी कोठरीमें बने रहो । यदि चले जाओगे तो तुम्हें मेरा शपथ है। हे सिद्धात्मन् ! आप दानियोंके देव हैं । रक्षकोंके देव हैं। भव्योंके देव हैं, मेरे लिए सबसे बढ़कर देव हैं, विशेष क्या ? हे निरंजनसिद्ध ! आप देवोंके भी देव हैं। इसलिए मुझे सन्मति प्रदान कीजिए। इसी भावनासे वे लोकविजयी होते हैं । इति भरतेशनिवेगसंधिः ध्यान सामयासंधि परदेके अन्दर उस सुन्दर शिलातलपर भरतेश सिद्धासनसे बैठकर अब दीक्षाके लिए सन्नद्ध हुए हैं । उनका निश्चय है कि मेरे लिए कोई गुरु नहीं है। मेरे लिए मैं ही गुरु हूँ, इस प्रकारके विचारसे वे स्वयं दोक्षित हुए । वस्त्राभूषणोंसे सर्वथा मोहको उन्होंने परित्याग कर अलग किया। वस्त्राभूषणोंकी शोभा इस शरीरके लिए है, आत्माके लिए तो शरीरभी

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