Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 649
________________ भरतेश वैभव करो । मतिज्ञान आदि केवलज्ञान पयंतके ज्ञान भी यही ध्यानरूप है। सिद्धोंके अष्टगुण भी इसी रूप है । विशेष क्या ? सिद्ध स्वयं इस स्वरूपमें हैं। यह मेरी आज्ञा है। विश्वास करो। जैसे सूर्य-बिंबके ऊपरसे मेघाच्छादन हटता जाता है तैसे तैसे सूर्यका प्रकाश बढ़ता जाता है इसी प्रकार मात्मसूर्यसे फर्मावरण जैसे-जैसे हटता जाता है वैसे ही मतिज्ञानादि ज्ञानों में निर्मलता बढ़ती जाती है। तब ज्ञानके पाँच भेद बनते हैं। जैसे मेघपटल पूर्णतः दूर होनेपर सूर्य पूर्ण उज्ज्वल प्रकट होता है वैसे हो जब कि वह कर्ममेघ अशेषरूपसे हट जाता है | सब समस्त विश्वको जाननेमें समर्थ फेवल्यबोधकी ( केवलज्ञान ) प्राप्ति होती है । धूल बगैरहके हटनेपर दर्पण जैसा निर्मल होता है, उसी प्रकार ध्यानके बलसे यह आल्मयोगी जब नोकमाको दूर करता है तब केवलदर्शनकी प्राप्ति होती है । मुझे अपने आरमासे बढ़कर कोई पदार्थ नहीं है, ऐसा जब दृढीभूत होकर यह भव्य आत्मामें मग्न होता है तब सप्त प्रकृतियोंका अभाव होता है। उस समय क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। जैसे पानी में नमक घुल जाता है वैसे आत्मामें इस मनको तल्लीन करनेपर जब मोहनीय कर्मकी २१ प्रकृतियोंका अभाव होता है तब यथाख्यातघारित्र होता है। रोगके दूर होनेपर रोगी सामर्थ्य संपन्न होता है। इसी प्रकार यात्मयोगी जब पाँच अंतराय कोंको दूर करता है तो तीन लोक को उठानेका सामर्थ्य प्राप्त करता है, वही अनन्तवीर्य है। दो गोत्र कर्मों के अभाव होनेपर वह आत्मा सिद्ध क्षेत्रपर पहुँच जाता है, उसके बाद वह इस भूप्रदेशपर गिरता पड़ता नहीं है। अगुरुलघुनामक महान् गुणको प्राप्त करता है। दो वेदनीय कमौको जब यह ध्यानके बलसे छेदनीय बना लेता है तो अध्याबाध नामक गुणको प्राप्त करता है जिससे कि उसे किसीसे भी बाधा नहीं हो सकती है। जब यह आत्मा ध्यानके बलसे चार प्रकारके आयु कमको दूर करता है तब अनंतसिद्धिको भी अपने प्रदेशमें स्थान देने योग्य अवगाहन गुणको प्राप्त करता है इसी प्रकार नामकमंकी ९३ प्रकृतियोंको ध्यानके बलसे जब यह नष्ट करता है तब पंचेन्द्रियोंके लिए अगोदर अतिसूक्ष्म नामक गुण को प्राप्त करता है इस प्रकार १४८ कर्मप्रकृत्तियों को दूर करनेपर आल्मा सम्पूर्ण आत्मयोगको प्राप्त करता है. एवं लोकायवासी बनता है । वही तो मोक्ष है इसके सिवाय मोक्षप्राप्तिका अन्य मार्ग नहीं है। हे भरत ! मैं भी वहीं विहार करता है। अनन्त सिद्ध वहीं रहते हैं। यह ब्रह्मानन्द है। इसे विश्वास करो। अनेक अर्कोको छोड़कर मुझे ही

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