________________
भरतेश वैभव
२२५ न लगाकर बडदेहसुखरूपी लवणसमद्रको पीते हए फिर भी प्यासा ही प्यासा रहा । हाय ! कितने दुःखकी बात है। ध्यानरूपी अमृतको पान न कर आत्मानन्दका अनुभव नहीं किया। केवल शरीरके ही सुख में मैं मग्न हुआ । देखो ! मेरे सहोदर तो मंछ आनेके पहले ही दीक्षा लेकर चले गये एवं अमृतपदको पा गये । परन्तु मैंने ही देरी को । सहोदरोंकी बात क्यों? मेरे शरीरसे पैदा हुए मेरे पुने दोशाक मुगिन्तस्थानको प्राप्त किया । इससे अधिक मेरी मूर्खता और क्या हो सकती है ? मेरे पिताजी, श्वसुर, मामा, साले आदि सभी आप्त आगे बढ़ गये । मैं अकेला ही पीछे रहा । हाय ! अत्यन्त खेदकी बात है। अच्छा ! ये आगे गये । मुझे भी मार्ग है, मैं मी जाऊँगा। मुझे तपश्चर्याका योग है। तपश्चर्याक योग्य स्वपरतत्वका ज्ञान है। एवं विपुल आत्मयोग है। उसके द्वारा कर्मको नष्ट करके मैं मुक्तिको जाऊँगा", इस प्रकार सम्राट्ने दृढ़ निश्चय किया।
बुद्धिसागर मन्त्रीने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि स्वामिन् ! आप यह क्या विचार करने लगे हैं । इस षट्खंडाधिपत्यसे बढ़कर सम्पत्ति कहाँ है ? इसलिए आप इस सुखको अनुभव करो। तपके तापकी अभी जरूरत ही क्या है ! आपको यहाँपर किस बातकी कमी है। धरणीतलपर स्थित समस्त शासक राजा आपके चरणोंमें मस्तक रखते हैं। मनुष्य लोकके सर्व श्रेष्ठ श्रीमन्तोंको छोड़कर अन्य विचार आप क्यों कर रहे हैं राजन् ! छोड़ो इस विचारको।
सम्राट्ने कहा कि मंत्री! क्या उस दिन पिताजी दीक्षा लेकर चले गये, क्या उनके पास कुछ भी सम्पत्ति नहीं थी ? इसलिए बुद्धिमानके लिए यह शरीर स्थिर नहीं हैं। इसलिए अपना हित सोच लेना चाहिए । यह तो बिलकुल ठीक बात है कि जिनके हृदयमें वैराग्य नहीं है, केवल तपश्चर्याक लिए जाते हैं तो वह तप भारभूत है। परन्तु ज्ञानी विरक्तिके लिए वह तपश्चर्या गुलके अन्दर प्रविष्ट होनेवालेके समान मधुर है। ज्ञानरहित आत्माके कम पत्थरके समान कठिन हैं। परन्तु ज्ञान प्राप्त होने के बात वह कठिन नहीं हैं, अत्यन्त मदु हैं। षट्खण्डको जीतनेसे क्या होता है । जबतक कर्मके तीन काण्डोंको यह जीत नहीं लेता है तबतक तीन रत्नों (रत्नत्रय-सम्यग्दर्शनशानचारित्र) को हो ग्रहण करना चाहिए । इन चौदह मणियोंसे क्या प्रयोजन है ? सम्राट् जब बोल रहा था तो उस दरबारमें ऐसा मालूम हो रहा था कि अमृतकी वर्षा हो रही हो । मन्त्रीने कहा कि स्वामिन् ! हम तो आपके विवेकके प्रति मुग्ध हुए हैं। अमृतके
२-१५