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भरतेश वैभव
१९७ है । बाहर के लोग उसे नहीं समझ सकते हैं। या तो भगवन्त जानते है या वह स्वयं ध्याता जानता है । ज्ञानका अंश बढ़ता जाता है । लालके घरमें आग लगने पर जैसे वह पिघल जाता है, उसी प्रकार ध्यानाग्निके बलसे सैजस कार्माण शरीर पिघलने लगे । क्षण-क्षण में चित्प्रभा बढ़ने लगी । ध्यानाग्निने तुरन्त मतिज्ञानावरणीयको जलाया । तब भरतेश्वरको मतिज्ञानसंपत्ति की प्राप्ति हुई अर्थात् सातिशय मतिज्ञानकी प्राप्ति हुई । परोपदेश व शास्त्रकी सहायता के बिना ही आत्मामें ही पदार्थोंके निर्णय की सामर्थ्यं प्राप्त होती है उसे सातिशय मतिज्ञान कहते हैं । वह सुज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ । मतिज्ञानके आवरणको जलानेके बाद वह ध्यानरूपी भाग श्रुतावरण में लग गई। तत्काल ही श्रुतावरण जल गया। सातिशय श्रुतज्ञानकी प्राप्ति हुई | मतिज्ञानपूर्वक शास्त्रोंके अध्ययनसे पदार्थों को विशेषतथा जानना यह श्रुतज्ञान है, वह चतुर्दश पूर्वके रूपमें है । वही ज्ञान आत्मयोग बलसे सम्राट को हो गया। उसके बाद वह ध्यानाग्नि अवधिदर्शनावरण, अवधिज्ञानावरणपर लग गई तुरन्त दोनों जलकर खाक हुए। सम्राट्
अवधिज्ञान व अवधिदर्शन की प्राप्ति हुई । अवधिज्ञानका अर्थ सीमित ज्ञान है। उससे समस्त लोकको जान नहीं सकते हैं। इसलिए उनको उस समय सीमित ज्ञान दर्शन प्राप्त हुई। पिछले कुछ भयको द आगामी कुछ भवोंको वे उसके बलसे जान सकते हैं तो ध्यानसे बढ़कर कोई तप है ? अब मन:पर्ययज्ञान है, परन्तु वह गृहस्थोंको प्राप्त नहीं होता है । तयापि मतिज्ञानादि चार ज्ञान क्षायिक नहीं है। आयोपशमिक हैं । मार्ग में पड़े हुए पुराने घासों को जैसा जलाते हैं उस प्रकार इन चार ज्ञानोंके आवरणको जलानेपर चार ज्ञानोंकी प्राप्ति होती है । परन्तु जब पांचवां ज्ञान प्राप्त होता है तभी यथार्थ आत्मसिद्धि होती है। आवरणके क्षयके निमित्तसे ये चार ज्ञान क्षायिक कहला सकते हैं । परन्तु वस्तुतः क्षायिक नहीं है । परन्तु केवलज्ञान स्वयं क्षायिकज्ञान है। अब इनका वर्णन रहने दो। वह घ्यानाग्नि अब मोहनीय कर्मको लगी ! बहाँपर आत्माकं धौम्यगुणको दूर करनेवाली सात प्रकृतियों को उसने जलाना प्रारम्भ किया। उन सप्त प्रकृतियोंकी ऐसा जलाया कि फिर ऊपर उठ ही न सके ! अनन्तानुबंधिकषाय चार, मिध्यात्व, सम्यक्त्व व सम्यविमथ्यात्व इस प्रकार सप्तप्रकृतियों को उसने जलाया । सिद्ध व अरहंतके सम्यक्त्व से वह कुछ भी कम नहीं है। उनकी वृद्धिको बराबरी करनेवाला वह सम्यक्त्व है | उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । उसकी प्राप्ति मरतेश्वरको हुई । आत्मासे बढ़कर कोई पदार्थ नहीं है । बात्मासे ही आत्मा की मुक्ति