Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 675
________________ भरतेश वैभव २२१ 1 होती थीं । एवं स्वयं मंदिर चली जातो थीं। उसी समय राजा लोग सम्राट्के योग्य जवान कन्याओं को लाकर देते थे । जो स्त्रियाँ व्रत लेने के लिए जानेको अनुमति माँगती थीं उनको हँसकर सन्मति देते थे । एवं उनके योग्य जवान कन्याओंको ला देनेपर हंसकर पाणिग्रहण कर लेते थे । बूढ़ी स्त्रियाँ कभी - कभी न कहकर एकदम मंदिर जाती थीं और उसी समय अकस्मात् नवीन कन्यायें विवाह के लिए आती थीं तो गुरु हंसनाथ की महिमा समझकर उनको स्वीकार करते थे। अच्छी-अच्छी कन्याओंको देखकर आसपास राजा सार्वभौम के योग्य वस्तु समझकर ला देते थे तब भरतेश उनके साथ विवाह कर लेते थे । देश-देशसे प्रतिनित्य कन्यायें आती रहती हैं। रोज भरतेश्वरका विवाह चल रहा है। इस प्रकार वे नित्य दूल्हा ही बने रहते हैं । उनके वैभवका क्या वर्णन किया जाय ? पुरानी स्त्रियाँ जाती हैं, नवीन खियां आती हैं। सारांश यह है कि हर समय ९६००० स्त्रियो उनको बनी रहती हैं। कम नहीं होती है। पुरुषोंके साथ दीक्षा लेनेवाली कन्यायें एवं दीक्षा लेनेवाले कुमारोंको छोड़कर पखंड दिग्विजयको करनेके बाद सम्राट्को एक कम ९६००० संतान होनी ही चाहिए। पट्टरानो विद्याधर लोककी है, वंध्या है, खीरस्न है । कभी कम ज्यादा शिथिल वगेरह नहीं होती है । ऐसी मदोन्मत्त जवान स्त्रियोंके साथ भरतेश यथेच्छ क्रीड़ा करते रहे। जैसे पानी में प्रवेश कर मदोन्मत्त हाथी करता हो । शृंगार और सौन्दर्यसे युक्त स्त्रियों में वे राजमोही ऐसे लीन हो गये थे जैसे कि पुष्प वाटिका में भ्रमर आनन्दित होता है । उनके स्पर्श करने मात्रसे स्त्रियोंको रोमांच होता है । उनको परवश कर देते हैं, मूच्छित करते हैं एवं पुनः आनन्दसे जागृत करते हैं । भिन्न-भिन्न स्त्रियोंकी इच्छानुसार रमण कर तदनन्तर अपनी इच्छानुसार उनको मोहित करते हैं। भरतराजेन्द्रका क्या गुण वर्णन करें ? हजारों स्त्रियोंको हजारों रूपोंको धारण कर वे एक साथ भोगते हुए इन्द्रजालिया के समान मालूम होते थे । उन अनुपम सौन्दर्ययुक्त स्त्रियों के शरीर सम्पर्कसे उत्पन्न सुखको अनुभव करते हुए मरतेश्वर सातिशय पुण्यफलको भोग रहे हैं एवं उसको आत्मप्रदेशसे निकाल रहे है । जिस प्रकार अनेक देशके लोग आकर किसी मंदिरकी पूजा करते हों, उसी प्रकार हजारों स्त्रियां भरतेशकी सेवा करती हैं तो उसे वे आनन्दसे ग्रहण करते थे । वहाँ एक मेला-सा लग जाता था । जिस प्रकार पके हुए एक फोड़ेको दाबकर एक धीर उसका पोप निकालकर बाहर कर देता है उसी प्रकार इन स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर पुंवेदकर्मरूपी फोड़ेका वे पीप

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