Book Title: Bharatesh Vaibhav
Author(s): Ratnakar Varni
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 644
________________ १९. भरतेश वैभव उस समय मंत्रीने कहा कि अपने पिता प्रतिष्ठाके साथ षट्खण्ड राज्य का पालन करते हैं तो हम अमृतसाम्राज्यका अधिपति बनेंगे, इस विचार से प्राज्य ( उत्कृष्ट ) सपको उन्होंने ग्रहण किया होगा। ___ अर्ककोति दुःखके साथ कहने लगा कि पिताजी के सौ भाई उस दिन दीक्षा लेकर चले गये। आज मेरे मो भाइयों ने दीक्षा ले न दास पहुंचाया। हम लोग बड़े हैं, हम लोगोंके दीक्षित होनेके बाद उनको दीक्षा लेनी चाहिए, यह रीत है। वे दुष्ट हैं। हमसे आगे चले गये, यह न कहकर आश्चर्य है कि आप लोग उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। अर्ककीतिके शोकादेशको देखकर भरतेश्वरने सांत्वना दी कि बेटा ! शान्त रहो। मेरे भाइयोंके समान ये क्या अहंकारसे चले गये? उत्तम बेराग्यको धारण कर ये चले गये हैं, इसलिए दुःख करनेकी आवश्यकता नहीं है। यदि मैं और तुम दोनों दुःख करें तो हमारी सेना व प्रजायें भो दुःखित होंगी । और अन्तःपुरमें भी सब दुखी होंगे। इसलिए सहन करो। इसी प्रकार भरतेश्वरने अरविन्द आदिको बुलाकर अनेक रत्नाभरणादि उपहारमें दिये व कहा कि आप लोग दुःख मत करो। युवराजके पास अब तुम लोग रहो । युवराज अर्ककीर्तिको भी कहा कि पहिलेके मालिकोंने जिस प्रकार इनको प्रेमसे पाला पोसा उसी प्रकार तुम भी इनके प्रतिव्यवहार करना। तदनन्तर सब लोग वहाँसे चले गये। अब सार्वभौम महलमें अन्दर चले गये । तब उनके सामने शोकाचेगसे संतप्त रानियोंका समुदाय उपस्थित हुआ। निस्तेज शरीर, बिखरे हुए केशपाश, म्लानमुख व अश्रुपातसे युक्त हुई वे अंगनायें भरतेश्वरके चरणों में पड़कर रोने लगी। पतिदेव ! हमारे पुत्र हमसे दूर चले गये ! आँख और मनके आनन्द चले गये ! हम उन्हींको अपना सर्वस्व समान रही थीं। हाय ! उन्होंने हमारा घात किया । हम अपने माणिक्यरूपी पूत्रोंको नहीं देखती हैं ! राजन् ! हमारी आगेकी दशा क्या है? हमारी कामना थी कि वे राज्यका पालन करेंगे परन्तु वे जंगलके राज्यको पालन करनेके लिए चले गये अन्तिम बय में दीक्षा न लेकर अभी दीक्षाके लिए चले गये एवं हमें इस प्रकार कष्टमें डाल गये ! हम लोग उनके विवाहके वैभवको देखना चाहती थीं। परन्तु हमारी इच्छा पूर्ण नहीं हुई। जिस प्रकार पलकी अभिलाषासे किसी वृक्षको सिंचनकर पाले-पोसे तो फल आनेके समय हो वह वृक्ष चला जाय, इस प्रकार यह दशा हुई । स्वामिन् ! आपको भी न कहकर, हमको भी न कहकर चुपचापके तपश्चर्याको जानेके लिए,

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