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भरतेश वैभव
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अनन्तसुख नामके गुणमें हो अन्तर्भूत होते हैं। एवं अनन्तज्ञान गुण, दान, ज्ञान, सम्यक्त्व व चारित्र के रूपसे ४ भेदोंसे विभक्त हुआ । अर्थात् दान व सम्यक्त्वचारित्र ये अनन्तज्ञानगुण में अन्तर्भूत होते हैं ।
इसलिए भाई ! मूलभूत गुण दो होनेपर भी भेदविवक्षासे कभी ४ भेद करते हैं । और कभी तो भेद करते हैं । यह कथन करने की शैली है ।
इस प्रकार सर्वांग सुन्दर अन्तरंग बहिरंग सम्पत्ति से युक्त भगवंतको मैंने आँख भरकर देखा । भाई ! बाहर तो शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होकर दिख रहा है । और अन्दर आत्मा उज्ज्वल होकर दिख रहा है। अन्दर व बाहर दोनों जगह सुज्ञानसे युक्त होकर शोभित होनेवाली वह अनादिवस्तु है।
भवतका शरीर दिव्य है । आत्मा दिव्य है। इसलिए देह और आत्माका अस्तित्व मणिक्य रत्न से निर्मित पात्र के अन्दर स्थित ज्योतिके समान मालूम होता है |
कंठके ऊपरके भागको उत्तमांग कहते हैं। और कटिप्रदेशतक मध्यमांग कहते हैं। कटिप्रदेश से नीचे के भागको कनिष्ठांग कहते हैं । यह कान है। परन्तु नवरी बैसा नहीं है। उनका शरीर तो मस्तकसे लेकर पादतक भी सर्वत्र परमोत्तमांग है। मश्वेके पुष्पमें नोत्रे ऊपर मध्यका भेद है । परन्तु सुगन्ध में वह भेद नहीं है । और न्यूनाधिक्य भी नहीं है। उस परमोदारिक दिव्यदेहमें स्थित आत्मा मस्तक से लेकर पादतक आदि मध्य अन्त में कहीं भो सुपवित्र स्वरूप में शोभित हो रहा है । क्या रत्नदर्पण में ऊपर नीचे आदि अन्त, इस प्रकार - का भेद है ? नहीं । वह आत्मा दिव्यज्ञान व दर्शनसे युक्त है, उसके स्वरूप में कहीं भी न्यूनता नहीं ।
अन्तरंग सम्पत्ति बहिरंग सम्पत्तिसे युक्त जिनेन्द्र भगवन्तका वर्णन में क्या करूँ । भाई ! केवल उसे उभयश्रीसहित कह सकता हूं । वे कांतिके खान हैं, सुज्ञानके तीर्थ हैं। तीन लोक में शांतिके सागर हैं इस प्रकार भव्योंके सन्देहको दूर करते हुए कामविजयी भगवान् विराजमान हैं । निद्रा एक तरह से मूर्च्छा है । और निद्रित मनुष्य मुर्दे के समान पड़ा रहता है। भगवंत को निद्रा व जाड्य (आलस्य) नहीं हैं । वे चिदूप भगवंत कभी सोते नहीं हैं। हमेशा भद्रासन में विराजमान है ।
दुनियामें जिनको शत्रु है उनके नाशके लिए लोग अस्त्र शस्त्रादिकको धारण करते हैं, और अपना संरक्षण करते हैं । परन्तु भगवतके कोई