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भरतेश वैभव
१५७. जिनबिंब, पुस्तक, जपसर आदिके प्रति ममत्व बुद्धि करना पुण्य है । क्षिति हेम, नारी आदिके प्रति जो अतिमोह है वह पाप है।
मोहको मिथ्यात्व भी कहते हैं । मोहको अज्ञान भो कहते हैं। यह सब मागम ब अध्यात्मभाषाके भेदसे क्थन है।
हे रविकोति ! इस प्रकार स्नेह और मोह पुण्य और पापके लिए जन्मगेहके रूपमें हैं। परन्तु वह कोप इस आत्माको जलाता है। इसलिए यह पापलाय है। ओर राहके समान है। धर्मके लिए अथवा भोगके लिए, किसी भी कारणके लिए क्यों न हो क्रोध करें तो वे धर्म और भोग भस्म होते हैं । और पापकर्मका हो बंध होता है।
पाप इस आत्माको नरक और तिर्यचगति में ले जाता है, पुण्य स्वर्गलोकमें ले जाता है । दोनोंको समानता होनेपर इस आत्माको मनुष्य गति में ले जाते हैं।
है भव्य ! ये दोनों पाप और पुण्य कर्मलेप हैं, आत्माके निज भाव नहीं हैं । वे पाप पुण्य आठ कर्मों के रूपमें परिणत होकर आत्माको इस संसारमें परिभ्रमण कराते हैं। ___ वे कर्म कभी इस आत्माको सुन्दर बनाते हैं तो कभी कुरूपी बनाते हैं । कभी यह आत्मज्ञानी है तो कभी मुर्ख कहलाता है। कभी देव , कभी नारकी और कभो मनुष्य और कभी तियं चके रूपमें यह आत्मा दोखता है । यह सब उन पापपुण्योंका तंत्र है । कभी यह आत्मा क्रूर कहलाता है तो कभी शांत कहलाता है । कभी वीर कहलाता है और कभी डरपोक कहलाता है, कभी स्त्री बनता है और कभी पुरुष । यह सब विचित्रतायें मात्माको कर्मजनित हैं।
शुभ व अशुभ कर्मके वशीभूत होकर संसारके समस्त प्राणी इस भवबन्धनमें पड़कर दुःख उठाते हैं। जब इस अशुभ व शुभ कर्म को अपने आत्मप्रदेशसे दूर करते हैं। तब वे मुक्तिप्राप्त करते हैं।
सुकृत व दुष्कृत दोनों पदार्थ आल्माके लिए उपयोगी नहीं हैं। उन दोनोंको समान रूपमें देखकर जो परित्याग करते हैं वे विकृतिको दूर कर मुक्तिको प्राप्त करते हैं। - एक सुवर्णकी श्रृंखला है, और दूसरी लोहे की श्रृंखला है। परन्तु दोनों बंधनके लिए ही कारण हैं। ऐसे पुण्य-पाप आत्माके लिए कारण है। इस प्रकार जीव पुद्गलके संसर्गसे सप्ततत्त्वोंका विभाग हुआ । और उनमें पुण्य-पापोंको मिलानेपर नव पदार्थ हुए।
इस प्रकार सप्ततत्व और नव पदार्थों का विवेचन हुआ। अब उनमें