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मरसेश वैभव
१७२ साष्टांग नमस्कार किया व पुनः हर्षातिरे कसे कहने लगा कि भगवन् ! मैं जोत गया ! मैं जीत गया !
चिद्रूपको जिन समझकर उपासना करना यह भक्ति है । उस चिद्रूपको न देखकर इस क्षुद्रशरीरको ही जिन समझना यह कौनसी भक्ति है।
कदाचित् शिलामयमूर्तिको किसी अपेक्षासे जिन कह सकते हैं। सुद्धात्मकलाको तो जिन कहना ही चाहिये, मलपूर्ण शरीरको वस्त्राभूषणों. से अलंकृत कर उसे जिन कहना व पूजना वह तो मुर्ख भक्ति है।
हंसमुद्राको पसन्द करनेसे यह देहमुद्रा आत्मसिलिमें सहकारी होती है। हंसमुद्राको छोड़कर देहमुद्राको हो ग्रहण करें तो उसका उपयोग क्या हो सकता है ? प्रभो ! युक्ति रहित भक्तिकी हमें आवश्यकता नहीं है। हमें तो युक्तियुक्त भक्तिको आवश्यकता है । यह युक्तियुक्तभक्ति अर्थात् मुक्तिपथ आपके द्वारा व्यक्त हुआ । इसलिए आपको भक्ति तो अलौकिक फलको प्रदान करनेवाली है। हम धन्य हैं !! __ स्वामिन् ! आफ्ने पिताजीको ( चक्रवर्ती ) एक दफे इसो प्रकार तत्वोपदेश दिया था। उस समय उनके साथ में भी आया था । यह उपदेश अभीतक मेरे हृदय में अंकित है । आज वह द्विगुणित हुआ । आज हम सब बुद्धिविक्रम बन गये । प्रभो! कर्मकर्दममें जो फैसि हुए हैं, उनको ऊपर उठाकर धर्मजलसे धोने में एवं उन्हें निर्मल करनेमें समर्थ आपके सिवाय दयानिधि दूसरे कौन हैं ।
विषय ( पंचेंद्रिय) के मदरूपी विषका वेग जिनको चढ़ जाता है, उनको तुषमषमाष बोषमंत्रसे जागृत कर विषको दूर करनेवाले एवं शांत करनेवाले आप परमनिविषरूप है। ___ बाउकर्मरूपी आठ सौके गले में फंसे हुए जीवोंको बचाकर उनको मुक्तिपथमें पहुंचानेवाले लोकबन्धु आपके सिवाय दूसरे कौन हो सकते हैं। ___ भवरूपी समुद्र में यमरूपी मगरके मुख में जो हम फंसे हुए थे उनको उठाकर माक्षपथमें लगानेमें दक्ष आप हो हैं । और कोई नहीं है।
स्वामिन ! हम बच गये । आपके पादकमलोंके दांनसे आत्मसिद्धिका मागे भी सरल हुआ है। इससे अधिक लाभकी हमें आवश्यकता नहीं है। अब हमारे मार्गको हम ही सोच लेते हैं।
तदनन्तर रविकीतिने अपने भाइयोंसे कहा कि शझुंजय ! महाजव ! अरिंजय ! आप सबने भगवतके दिव्यवाक्यको सुन लिया? रतिवीर्य आदि सभी भाईयोंने सुना? तब उन भाइयोंने विनयसे कहा कि भाई ! सुननेमें समर्थ आप हैं, आत्मसिद्धिको कहने में समर्थ महाप्रभु हैं । हम लोग सुनना