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भरतेश वैभव कैसे बन सकता है ? पंकयुक्त भूमि ( कोचड़से युक्त जमीन ) के संसर्गसे वही बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है। __ ज्ञानसामर्थ्य इस शरीरमें स्थित आत्मामें विद्यमान है, तथापि ध्यान के बिना वह प्रकट नहीं हो सकती है । उसे आनन्द रसके सुध्यानमें रखने पर तीन लोकमें ही वह व्याप्त हो जाता है।
चनमूलिकासारको (नवसादर ) सुवर्ण शोधक साँचेमें ( मूसमें ) डालकर अग्निसे उस अशुद्ध सुवर्णको तपानेपर किटकालिमादि दोषसे रहित शुद्ध सुवर्ण बन जाता है उसी प्रकार मात्मशोधन करना चाहिये।
शरीर सुवर्णशोधक सोपा ( मूस! हैं। रत्नत्रय पढ़ापर नवसादर (सुहागा) है, और सुध्यान ही अग्नि है। इन सबके मिलनेपर फर्मका विध्वंस होता है, और वह मात्मा शुखसुवर्णके समान उज्ज्वल होता है। - हलके सोनेको शुद्ध नहीं किया जाता है वहाँ वह नवसादर, भूस अग्नि, किट्ट, कालिमा आदि सब अलग अलग ही हैं । और वह सिख (शुद्ध) करनेवाला अलग ही है। परन्तु यह आत्मशोधनकार्य उससे विचित्र है, यह उस सुवर्णपुटके समान नहीं है। ___ "सिद्धोऽहम् ! सोऽहम्" इत्यादि रूपसे जो उस आत्मशोधमें तत्पर हैं उनको समझाने के लिए निरूपण करते हैं 1 अच्छी तरह सुनो ! और समझो । ___ आत्मपुटकार्यमें वह मूल, किट्ट, कालिमा, यह आत्मासे भिन्न है । बाकी सुवर्ण, औषधि और शोधकसिद्ध सभो आत्मा स्वयं हैं । इस विषय पर विशेष विचार करनेको आवश्यकता नहीं है भव्य ! यह वस्तुस्वभाव हैं । समस्त तत्वोंमें यह आत्मतत्व प्रधानतत्व है, उसका दर्शन होनेपर अन्यविकल्प हृदय में उत्पन्न नहीं होते हैं।
निक्षेप, नय, प्रमाण यह सब आत्मनिरीक्षणके काल में रहते हैं, सर्व पक्षको छोड़कर आत्मनिरीक्षणपर जब यह मग्न हो जाता है तब उनकी आवश्यकता नहीं है। __ मदगज यदि खो जाय तो उसके पादके चिह्नोंको देखते हुए उसे ढूंढते हैं । परन्तु सामने ही वह मदगज दिखे तो फिर उन चिह्नोंको आवश्यकता नहीं रहती है । अनेक शास्त्रोंका अध्ययन, मनन आदि आत्मान्वेषणके लिए मार्ग हैं, ध्यानके बलसे आत्माको देखनेके बाद अनेक विकल्प व भ्रांतिकी क्या आवश्यकता है ? ___ आत्मसम्पर्क में जो रहते हैं उनको तर्कपुराणादिक आगम रुचते नहीं हैं । अर्कके समीप जो रहते हैं वे दीपकको क्यों पसन्द करते हैं। क्या राज. शर्करासे भी बलको कभी कीमत अधिक हो सकती है ?