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भरतेश वैस
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किया | वहाँवर उपस्थित गणधरोंको क्रमसे नमस्कार करते हुए वे कुमार आगे बढ़े। इतने में वहाँपर उन्होंने अनेक तरवचर्चा में चित्त विशुद्धि करनेवाले २१वें गणधरको देखा। उनके सामने दे कुमार खड़े होकर कहने लगे कि हे मेघेश्वरयोगि ! आप विचित्र महापुरुष हैं, आप जयवंत रहें ! इसी प्रकार विजय, जयंतयोगी जो मेघेश्वर ( जयकुमार) के सहोदर हैं, को भी भक्ति से वंदना को, और कहने लगे कि दोक्षाकार्यका दिग्बिजय हमें हो गया । अब हमारा निश्चय हो गया है। उस समय वे कुमार आनंद से फूले न समा रहे थे ।
मुनि समुदायकी वंदना कर वे कुमार अनिमिषराज देवेन्द्र के पास आये व बहुत विनयके साथ उन्होंने अपने अनुभवको देवेंद्रसे व्यक्त किया | देवराज ! हमारे निवेदनको सुनो, उन कुमारोंने प्रार्थना की " आप अपने स्वामीसे निवेदन कर हमें दीक्षा दिलावें, इससे तुम्हें सातिशय पुण्य मिलेगा | वह पुण्य आगे तुम्हें मुक्ति दिला देगा, हम लोगोंने भगवन्तका कभी दर्शन नहीं किया, उनसे दीक्षा के लिए विनती करनेका क्रम भी हमें मालूम नहीं है। इसलिए हे ऊर्ध्वलोकके अधिपति ! मौनसे हम देखते हुए क्यों खड़े हो ! चलो, प्रभुको कहो" । तब देवेन्द्रने उत्तर दिया कि कुमार ! आप लोगोंका अनुभव, विचार, परमात्माके ज्ञानको भरपूर व्यक्त कर रहा है इसलिए मुझे आप लोग क्यों पूछ रहे है आप लोग जो भी करेंगे उसमें मेरी सन्मति है । जाईयेगा । तदनन्तर वे कुमार बहाँसे आगे बढ़े, और गणधरोंके अधिपति वृषभसेनाचार्यको पुनश्च वंदनाकर कहने लगे कि मुनिनाथ ! कृपया जिननाथसे हमें दीक्षा दिलाइये तब वृषभसेन स्वामी ने कहा कि कुमार ! आप लोगोंका पुण्य ही आप लोगोंके साथ में आकर दीक्षा दिला रहा है, फिर आप लोग इधर-उधर की अपेक्षा क्यों करते हैं ? जाओ, आप लोग स्वयं त्रिलोकपतिले दीक्षाको याचना करना वे बराबर दोक्षा देंगे । साथ में यह भी कहा कि हमारी अनुमति है, वही यहाँ द्वादशगणको भी सन्मत है, लोकके लिए पुण्यकारण है, आप लोग जाओ, अपना काम करो। इस प्रकार कहकर गणनायक वृषभसेनाचार्यने उनको मागे रवाना किया। गणकी अनुमति से आगे बढ़कर वे भगवान् आदिप्रभु के सामने खड़े हुए व करबद्ध होकर विनयसे प्रार्थना करने लगे, हे फणिसुरनरलोकगति एवं विश्वके समस्तजीवोंको रक्षण करनेवाले, हे प्रभो ! हमारे निवेदनकी ओर अनुग्रह कीजिये ।
भगवन् ! अनादिकाल से इस भयंकर भवसागरमें फिरते-फिरते चक गये हैं। हैरान हो गये। अब हमारे कष्टों को अर्ज करनेके लिए बाप