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भरतेश वैभव चाहिये, आपका ध्यान, हमारा ध्यान अलग है' इत्यादि अनेक प्रकारसे बहानेबाजी करते हैं।
वे अभव्य शरीरको कष्ट देते हैं, पढ़ाते हैं, पढ़ते हैं। अनेक कष्ट सहन करते हैं। इन सब बातोंके फलसे संसारमें कुछ सुखका अनुभव करते हैं । परंतु मुक्तिसुखको वे कभी प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।
बीच में ही रविकोतिराजने प्रश्न किया कि भगवत् ! एक प्रार्थना है । आत्माको आत्माका दर्शन नहीं हुआ तो मुक्ति नहीं होती है, ऐसा आपने कहा । यह समझ में नहीं आया। सदा काल आपकी भक्ति में जो अपना समय व्यतीत करते हैं उनको आत्मसिद्धि होने में आपत्ति क्या है ?
भव्य ! सुनो ! भगवंतने फिरसे निरूपण किया। हमारे प्रति जो भक्ति है वह मुक्तिका कारण जरूर है । परन्तु उस भक्ति के लिए युक्ति की आवश्यकता है। हमारे निरूपणको सुनकर उसके अनुसार चलना वही हमारी भक्ति है। अपनी दुनकानुसार भक्ति करना लाई अन्ति ।।
'स्वामिन् वह स्वेच्छाचारपूर्ण भक्ति कैसी है ? अपनी आत्माके विचार से युक्त भक्ति स्वेच्छापूर्ण कही जा सकती है। परन्तु मुक्तिको जिनेन्द्र ही शरण हैं । इस प्रकार आपकी भक्ति करें तो स्वेच्छापूर्ण भक्ति कैसे हो सकती है ?" इस प्रकार पुनश्च रविकीर्तिने विनय से पूछा । ___"हे रविकीति ! तुम्हारा आत्मयोग ही हमारी भक्ति है" यह तुम जानते हुए भी प्रश्न कर रहे हो, सब विषय स्पष्ट रूपसे कहता है। सुनो ! युक्तिको जानकर जो जो भक्ति करते हैं वे मुक्तिको नियमसे प्राप्त करते हैं। युक्तिरहित भक्सि भवको वृद्धि करती है। इसलिए भक्तिके रहस्यको जानकर भक्ति करनी चाहिए" इस प्रकार आदि प्रभुने निरूपण किया।
पुनश्च रविकोतिराजने हाथ जोड़कर विनय से प्रार्थना की कि प्रभो ! हम मंदमति अज्ञानी क्या जाने कि वह युक्तिसहित भषित क्या है ? और युक्तिरहित भक्ति क्या है ? हे सर्वज्ञ ! उसके स्वरूपका निरूपण कीजियेगा। __ "तब हे भव्य | सुनो !'' इस प्रकार भगवंतने अपने गंभीर दिव्यनिनादसे निरूपण किया।
हे भव्य ! वह भक्ति मेद और अभेदके भेदसे दो भेदोंमें विभक्त है। उनके रहस्यको जानकर भक्ति करें तो मुक्ति होती है।