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भरतेश वैभव ज्ञान, प्रकाश, सुख, कुछ अल्पप्रमाणमें दीखते हुए अदृश्य होते हुए जो आत्मानुभव होता है वह धर्मयोग है। और वही सुज्ञान, प्रकाश व सुखका विशालरूपसे दीखते हुए स्थिरताकी जिसमें प्राप्त होते हैं वह शुक्लयोग है। - इस शरीर में कोई-कोई विशेष स्थानको पाफर प्रकाशका परिज्ञान होना वह धर्मयोग है । चाँदनीकी पुतलीके समान यह मास्मा सर्वांगमें जब दीखता है वह शुक्लयोग है।
हवामें स्थित दीपकके ममान हिलते हुए चंचलरूपसे जिसमें प्रात्माका दर्शन होता है वह धर्मयोग है। और हवासे रहित निश्चल दीपकके समान निष्कम्परूपसे आत्माका दर्शन होना वह शुक्लयोग है।
एकबार पुरुषाकारके रूपमें, फिर वही अदृश्य होकर, इस प्रकार जो प्रकाश दीखता है वह धर्मयोग है, परन्तु वही पुरुषाकर अदृश्य न होकर शरीरमें, सर्वाङ्गमें प्रकाशरूपमें ठहर जाय उसे शुक्सयोग कहते हैं।
चन्द्रको कला जिस प्रकार क्रमसे धीरे-धीरे बढ़ती जाती है उसी प्रकार धर्मध्यानमें धीरे-धीरे आत्मानुभव बढ़ता है। प्रातःकालका सूर्य तेजः पुल होते हए मध्याह्नमें जिस प्रकार अपने प्रतापको लोकमें व्यक्त करता है, उस प्रकार शुक्लध्यान इस आत्माको प्रभावित करता है ।
बरसातका पानी जिस प्रकार इस जमीनको कोरता है उस प्रकार यह धर्मयोग कर्मको जर्जरित करता है। नदीका जल जिस प्रकार इस जमीनको कोरता है उस प्रकार यह शुक्लयोग कर्मसंकुलको निर्जरित करता है।
मट्ट अर्थात् तोक्षणधारसे युक्त नहीं है ऐसा फरसा जिस प्रकार लकड़ो. को काटता है उस प्रकार कर्मोको धर्मयोग काटता है । तीक्ष्णधारसे युक्त फरसे के समान शुक्लयोग कर्मोको काटता है।
विशेष क्या ? एक अल्पकांति है दूसरी महाकांति है इतना ही अन्तर है 1 विचार करने पर वह दोनों एक ही हैं । क्योंकि उन दोनोंको आत्माके सिवाय दूसरा कोई आधार नहीं है।।
सिंहके बच्चेको बालसिंह कहते हैं बड़ा होनेपर उसे हो (सहके नामसे कहते हैं, परन्तु बालसिंह ही सिंह बन गया न ? इसी प्रकार ध्यानके बाल्यकालमें वह ध्यान धर्मध्यान कहलाता है और पूर्णताको प्राप्त होनेपर उसे ही शुक्लध्यान कहते हैं। वह भवगषक समूहको नाश करनेके लिए समय है।