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भरतेश वैभव शरीरको धारण करनेपर उतना ही बड़ा होता है । बीचके अनेक प्रमाणके शरीरको धारण करनेपर उसी प्रमाणसे रहता है ।
हे भव्य ! यह सब वर्णन किसी एक जीवके लिए नहीं है। सभी संसारो जीवोंको यहो रीति है। समस्त कमीको दूर करके जो आत्माको देखते हैं, वहां कोई झंझट नहीं हैं ।
देखो ! स्फटिकरल तो बिलकुल शुभ्र है 1 जिस प्रकार उसके पीछे अन्य रंगके पदार्थों को रखनेपर उसका भी वर्ण बदलता रहता है, उसी प्रकार तीन शरीररूपी घटके सम्बन्धसे यह आश्मा अतिकल्मष होकर संकटोंका अनुभव करता है।
यह आत्मा पारीरमें रहता है। परन्तु उसे कोई शरीर नहीं है। सुज्ञान ही उसका शरीर है । आत्मा शरीरको स्पर्श करनेपर भी उससे अस्पृष्ट है, परन्तु शरीरके सर्वांगमें भरा हुआ है | यह आत्माका अंग है।
वह आत्मा आगसे जल नहीं सकता है। पक नहीं सकता । पानीसे भींग नहीं सकता है। अस्त्र, शस्त्र कुल्हाड़ी आदिसे छेदा भेदा नहीं जा सकता है। पामो, अग्नि, अस्त्र, शस्त्रादिककी बाधा शरीरके लिए है, आत्माके लिए नहीं।
मांस-रक्त, चर्ममय प्रदेश में रहनेपर भी दूध मांसचर्ममय नहीं है। अपितु संसेव्य है। उसी प्रकार मांसास्थिचर्म कर्मस्पो शरीरमें रहनेपर भी आरमा शुद्ध है, परम निर्मल है।
वह आत्मा लोकके अन्दर व बाहर जानता है व देखता है । कोटिसूर्य वचन्द्र के प्रकाशसे युक्त है। जिस प्रकार मेघसे आच्छादित होकर प्रतापी सूर्य रहता है, उसी प्रकार यह आत्मा कर्ममेघसे आच्छादित होकर रहता है।
तीन लोकको हाथ से उठाकर हथेली में रखनेकी शक्ति इस आत्माको है। तीन लोकका जितना प्रमाण है उतना ही इसका भी प्रमाण है । अर्थात् तीन लोफमें सर्वत्र वह व्याप्त हो सकता है परन्तु जिस प्रकार बोजमें वृक्ष रहता है, उसी प्रकार सर्व शक्तिमान् यह आत्मा इस छोटेसे शरीरमें रहता है।
रविकीति ! कर्मके नाश करनेपर तो सभी हमारे समान ही बनते हैं। उन कर्मोंका नाश किस प्रकार किया जा सकता है उसका वर्णन आगे किया जायगा । यह जीवके स्वरूपका कथन है। अब पुद्गलके सम्बन्धमें कहेंगे । उसे भी अच्छी तरह सुनो।