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भरतेश वैभव कालद्रव्य कारण है । अन्य द्रव्योंकी वतनाके लिए वह कारण है । जिस प्रकार कि विदूषक अपने मुखको टेढ़ा-मेढ़ा कर हंसकर दूसरोंको हँसाता है।
हे भव्य ! जीव पुद्गलको आदि लेकर छह द्रव्योंका वर्णन किया गया । उन छह द्रव्योंके मूलमें कुछ तरतमभाव है, उनको अब अच्छी तरह सुनो!
आकाश धर्म व अधर्म द्रव्य एक एक स्वतंत्र होकर अखंडख्य हैं। परन्तु जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य असंख्यात कहलाते हैं।
अनेक जीवोंकी अपेक्षा जोव खण्डरूप है । परन्तु एक जीवको अपेक्षा अखंडरूप है । कालाणु भी अनेककी अपेक्षा खंडरूप है, परन्तु एक अणुको अपेक्षा तो अखंड ही है।
पुद्गलये स्कंधको भिन्न करने पर खंड होते हैं. एवं मिले हुए अणुओंको भिन्न करने पर खण्ड होते हैं। परमाणु मात्र अखेडरूप ही है। वह खण्डित नहीं हो सकता है।
छह द्रव्योंमें पदगल ही मूर्त है, बाकीके पांच द्रव्य मूर्त नहीं है। साथमें हे रविकीर्ति ! उन द्रव्योंमें ज्ञानसे युक्त द्रव्य तो जीव एक ही है । अन्य द्रव्योंमें ज्ञान नहीं है। गतिके लिए सहकारी धर्मद्रव्य हो है। स्थितिके लिए सहकारी अधर्म ही है। स्थान दानके लिए आकाश ही समर्थ है। वर्तना परिणतिके लिए काल ही कारण है। अर्थात् वे द्रव्य अपने-अपने स्वभावके अनुसार ही कार्य करते हैं। अपने कार्यको छोड़कर दूसरोंका कार्य वे कर नहीं सकते हैं।
जीव गुद्गल दो पदार्थ संचरणशील हैं अर्थात् वे आकाश प्रदेशमें इधर-उधर चलते हैं । परन्तु बाकीके ४ द्रव्य इधर-उधर चलते नहीं हैं। परस्पर बंध भी जीव पुद्गलों में हैं, बाकीके द्रव्योंमें वह नहीं है।
जीवके संचलनेके लिए पुदगल कारण है पुद्गलके चलनेके लिए काल कारण है । इस प्रकार काल, कम व जोवका त्रिकूट मिलकर चलन होता है। जीवद्रव्य जबतक कर्मके साथ युक्त रहता है तब तक यह चतुर्गति भ्रमण रूप संसारमें चलता है। परन्त कर्मोको नष्टकर मक्ति साम्राज्यमें जब जा विराजमान होता है तब वह चलता नहीं है ।
लोकमें छह द्रश्य एकमेक मिलकर सर्वत्र भरे हुए हैं। परन्तु एकका गुण दुसरेका नहीं हो सकता है । अपने-अपने स्वरूप में स्वतंत्र है।