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भरतेश वैभव
शरीर कहते हैं। इस प्रकार आहारक, औदारिक, वैकियक, तैजस व कार्माणके भेदसे शरीरके पाँच भेद हैं ।
इस प्रकार लोक में धर्म व अधर्म नामक दो द्रव्य सर्वत्र भरे हुए हैं। निर्मल आकाश के समान अमूर्त है, अखण्ड है ।
धर्मद्रव्य जीव पुद्गलोंको गमन करनेके लिए सहकारी है, और अधर्मद्रव्य ठहरनेके लिए सहकारी है। जिस प्रकार कि पानी मछलीको चलने के लिए सहकारी व वृक्ष की छाया धूपमें चलनेवालोंको ठहरनेके लिए सहकारी है। जो नहीं चलता है उसे धर्मद्रव्य जबर्दस्ती चलाता नहीं, चलनेवालोंको रोकता नहीं है, पानी जिसी है ि यह ठहर जाय तो पानी उसे जबर्दस्ती चला नहीं सकता है । और चलनेवाली मछलीको रोक भी नहीं सकता है । परन्तु वहांपर चलनेके लिए पानी ही सहकारी है । क्योंकि पानी के बिना केवल जमोनपर वह मछली चल ही नहीं सकती है। इसी प्रकार जीव पुद्गल इधर-उधर चलनेवाले पदार्थ हैं । उनको चलाने के लिए बाह्य सहकारी धर्मद्रव्य है ।
वृक्षकी छाया चलनेवालों को हाथ पकड़कर बैठनेके लिए नहीं कहती है। बैठनेवालोंको रोकती भी नहीं है । परन्तु थके हुए पथिक वृक्षको छाया में हो बैठते हैं, कठिन धूप में बैठते नहीं हैं इसलिए बैठनेवाले जीव पुद्गलोंके बैठने के लिए अथवा ठहरनेके लिए बाह्य सहकारी जो द्रव्य है वह अधर्म द्रव्य है ।
आकाश नामक और एक द्रव्य है जो कि लोक अलोक में अखंड रूपसे भरा हुआ है। और सभी द्रव्योंको जितना चाहे उतना अवकाश देकर महाकीतिशाली के समान विशाल हैं ।
काल नामका द्रव्य परमाणुके रूपमें तीन लोक में सर्वत्र भरा हुआ है । वह परमाणु अनंत संख्यामें होनेपर भी एक दूसरे से मिलते नहीं । रत्नराशिके समान भिन्न-भिन्न हैं ।
स्पर्श, रस, गंध वर्णादि उन कालाणुओं को नहीं है । आकाश के रूपमें ही है । कदाचित् आकाशको ही परमाणु रूपमें खंडकर डाल दिया है । ऐसा मालूम हो रहा है। लोकमें वह सर्वत्र भरा हुआ है।
उसमें व्यवहारकाल व निश्चयकालके भेदसे दो विभाग हैं । लोकमें व्यवहार के लिए उपयुक्त दिन, मास, घटिका निमिष, वर्ष, वाम, प्रहर आदि सभी व्यवहार काल हैं। इस अमित लोकमें सर्वत्र भरा हुआ निश्चय काल है । पदार्थों में नवीन, पुराना आदि परिवर्तन के लिए बह
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