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भरतेश वैभव
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क्षुधातृषादिकोंकी बात क्या ? काम क्रोधादिक यमन जा सनः पीड़ा देते हैं तब यह जीवन दुःखमय हो रहता है । मुखकी कल्पना करना व्यर्थ है । भोजन, स्नान, सुगन्धद्रव्येलपन, स्त्रियोंको संगति इत्यादिसे यह शरीर सुख बिलकुल पराधीन है। परन्तु आत्मीय सुखके लिए कोई पराधीनता नहीं है । शरीरसुख, इन्द्रियसुख अथवा संसारसुख इन शब्दोंका अर्थ एक है । वह दुःखके द्वारा युक्त है, क्योंकि भाई ! पर पदार्थोके संसर्ग से दुःखका होना साहजिक है।
निर्वाणसुख, निजसुख, आत्मसुख इन शब्दोंका एक अर्थ है। आत्मा आत्मामें लीन होकर सुखका अनुभव करता है, उसे बाकीके लोगोंकी आधीनता नहीं है । वह लोकमें अपूर्व मुख है।
अपने आत्माके लिए आत्मा ही अपनो दस्तु है । स्वयं धारण किया हुआ शरीर, मन, इन्द्रिय, वचन, स्त्री, पुत्र आदि लेकर सर्व पदार्थ परवस्तु है । शरीरसुखके लिए इन सब पदार्थोकी अपेक्षा है।
परवस्तुओंकी अपेक्षासे रहित आत्मजन्य सुखको आत्मानुभवी ही जान सकते हैं । अथवा कर्मशून्य जिनेंद्र भगवंत ही उसे जान सकते हैं, दूसरे नहीं जान सकते हैं।
दोपपात्र, तेल बत्तो वगैरहकी अपेक्षा अग्निदीपके लिए रहती है । रत्नदीपकको किस बातकी अपेक्षा है ? इसी प्रकार कमसहित संसारियोंको ही सुख प्राप्तिके लिए परपदार्थोकी अपेक्षा है । कर्मरहित जिनेंद्रको इन बातों की जरूरत नहीं है। __ जिस प्रकार अग्निदीपक दीपपात्रमें स्थित तेलको बत्तीके द्वारा ग्रहणकर प्रकाशको प्रदान करता है, उसो प्रकार संसारी जीव दाल भात आटा आदि आहारद्रव्यके द्वारा शरीर इंद्रिय आदिको पोषण कर स्वयं फलते हैं। दोपकमें तेल हो तो प्रकाश तेज रहता है। यदि तेल न हो तो मंदप्रकाश होता है । उसी प्रकार लोकमें भी मनुष्य खावे तो मस्स, न खावे तो सुस्त रहते हैं । यह लोककी रोति है।
परन्तु भाई ! जिस प्रकार रत्नदीप तेलबत्तो वगैरहके बिना ही प्रकाशित होता है। उसी प्रकार रत्नाकरसिद्धके परमपिता आदिप्रभुका सुख परवस्तुओंको अपेक्षासे विरहित है ।
व्यंतर, सुर, नाग ज्योतिष्क आदि देवोंके अनेक जन्मके सुखौंको एकत्रित कर भगवान् बादिप्रभुके सुखके सामने रक्खे तो वह उस सुख समुद्रके. सामने बूंदके समान मालूम होते हैं।