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भरतेश वैभव
पाना क्या कोई कठिन है ? भव्योंके लिए यह अतिसुलभ है । संसारमें अनेक पदार्थोंको जानकर मनको अपने आत्मामें स्थिर करनेसे उसकी सिद्धि होती है। ___काल अनादि है, कर्म अनादि है। जीव अनादि है यह जीव काल व कर्मके संबंधको अपनेसे हटा ले तो आत्मसिद्धि सहजमें होती है, अथवा वही आत्मसिद्धि है । इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवंतने निरूपण किया। ___ रविकोतिराजने पुनः विनयसे प्रश्न किया कि स्वामन् ! काल किसे कहते हैं, कम किसे कहते हैं, आत्मा किसे कहते हैं, जरा विस्तारसे निरूपण कीजिये, हम बच्चे क्या जाने । दयानिधे ! जरा फहियेगा।
भगवंतने उत्तरमें कहा कि तब हे भव्य ! सुनो ! सबसे पहिले छह द्रव्योंके लक्षणको निरूपण करेंगे आखिरको दिव्यात्मसिद्धिका वर्णन करेंगे ।
लोकमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, इस प्रकार छह द्रव्य तीन वायुमर ठित होकर विद्यमान है।
विशाल अनन्त आकाशके बीचोंबीच एक थेलेके समान तीन वात विद्यमान है। उस थेलेमें ये छह पदार्थ भरे हुए हैं।
वे तीनों वात मिलकर एक योजनको किंचित् कम प्रमाणमें हैं । और एक एक वायु तलमें २० हजार कोस प्रमाण मोटाईमें हैं ।
उन छह द्रव्योंका आधार लोक हैं, उन तीन वायुओंके बाहर स्थित आकाश आलोककाश कहलाता है, इतना तुम ध्यानमें रखना, अब क्रमसे आत्मसिद्धिको कहूंगा।
लोक एक होनेपर भी उसका तीन विभाग है । अधोलोक, मध्य लोक और ऊर्चलोकके भेदसे तीन है। परन्तु लोक तो एक ही है, केवल आकार च नामसे भेद है।
एक थेलेमें जिस प्रकार तीन खम्पेका करंडक रक्खें तो मालूम होता है उसी प्रकार तीन वातोंसे वेष्टित वह तीन लोकका विभाग है। ___नीचे सात नरक भूमियाँ हैं । वहाँपर अत्यधिक दुःख है । उन भूमियों के ऊपर कुछ सुखका स्थान नागलोक है । नागलोकसे ऊपर मध्यलोककी भूमितक अपोलोकका विभाग है।
हे भरतकुमार ! मेरुपर्वतको वलयाकृतिसे प्रदक्षिणा देकर अनेक द्वोपसमुद्र हैं। वह मध्यलोक है । मेरुगिरीके ऊपर अनेक स्वर्ग विमान मौजूद हैं। उन स्वर्ग साम्राज्योंके ऊपर मुक्ति है । मेरुपर्वतसे कार बातवलय पर्यतका प्रदेश अध्यलोक कहलाता है ।