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भरतेश वंभव भन्योंकी इष्टसिद्धिके लिए उनके पुण्यसे वे आज यहां विराजते हैं कल अव्ययसिद्धिको वे प्राप्त करते हैं। ___भाई ! दूसरे पदार्थों की अपेक्षा न कर जिस प्रकार भगवंत अनन्तशानी व अनन्तदर्शनसे सुशोभित होते हैं उसी प्रकार परवस्तुओंको अपेक्षा से रहित होकर अनन्तसुखसे भी वे संयुक्त हैं 1 उसका भी वर्णन करता हूँ। सुनो !
आठ कर्मोके जाल में जो फंसे हुए हैं, वे १८ दोषोंक द्वारा संयुक्त हैं । १८ दोष जहाँ हैं यहाँ दुःख भी है । जिनको दुःख है, उनको सुख कहाँसे मिल सकता है ?
पहिले भगवंतने ८ कर्मों में रहकर उन्हीमेंसे ४ कोको जलाया तब १८ दोषोंका भी अन्त हुआ । इसीसे उनको अनन्तसुखकी प्राप्ति हुई। वे अठारह दोष कौनसे हैं, कहता हूँ, सुनो।
क्षुधा, तृषा, निद्रा, भय, पसीना, कामोद्रेक, रोग, बुढ़ापा, रौद्र, ममता, मद, जनन, मरण, भ्रांति, विस्मय, शोक, चिंता, कांक्षा ये अठारह दोष । हैं । इन अठारह दोषोंसे भगवंत विरहित हैं अतएव वे सदा सुखी हैं और अपने आत्मस्वरूपमें विराजते हैं।
जिनको क्षुधा नहीं है उनको भोजनकी क्या जरूरत है ? प्यास जहाँ नहीं है वहाँ पानीकी क्या आवश्यकता है ? क्षुधातृषारूपी रोग जिनको है उनके लिए भोजन पान औषधिके समान है इसलिए ऐसे रोग जहां नहीं हैं वहाँ औषधिको भी क्या आवश्यकता नहीं है।
क्षुधातृषा आदि रोगोंका उद्रेक होनेपर भोजनपानरूपी औषधिका प्रयोग किया जाता है । परन्तु इन औषधियोंसे यह रोग सदाके लिए दूर नहीं हो सकते हैं, कुछ समयके लिए उपशामको पाकर तदनन्तर पुनः उद्रिक्त होते हैं । इसलिए उन रोगोंको सदाके लिए दूर करना हो तो अपनी आत्मभावना ही दिव्य औषध है।
भाई ! अपने ऊपर आक्रमण करनेके लिए आये हुए शत्रुको प्रत्येक समय कुछ लांच वगैरह दे दिलाकर वापिस भेजे तो उसका परिणाम कितने दिनतक हो सकता है ? वह कभी न कभी धोखा खाये बिना नहीं रह सकता है । इसी प्रकार क्षुषातृषादि रोगोंको कुछ समयके लिए दबाकर चलना क्या उचित है ?