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भरतेश वेभव देवगण व सिंहगणके लिए कोई संख्या नहीं है। उसके साथ बाकीके ११ गणकी संख्या मिले तो ५९१६ कम १२ लाख ४० हजार होती है।
पहिले बारह गणोंका भेद कहा गया, और फिर तेरह गुणोंके भेदसे १३ गण भेदका वर्णन किया। अब दुसरे एक दृष्टिकोणसे विचार किया लो वहांपर १०० इन्द्र और एक आचार्यगण इस प्रकार १०१ गणके भेदसे विभाग होता है।
यहाँतक जो कुछ भी वर्णन किया गया वह भगवान्की बाह्यसंपत्तिका है । अब सुनो ! मैं भगवंतकी अन्तरंगसम्पत्ति का वर्णन करता हूँ।
बहप मा के दि माफम उसे परापर्यन्त सर्वांगमें व्याप्त होकर रहता है । आपातमस्तक उज्वलप्रकाश रनदीपककी सुन्दरकांतिके समान वह मालूम होता है । प्रकाश ध रलदीप जिस प्रकार अलग-अलग नहीं है, उसी प्रकार आत्मप्रकाशके रूपमें हो वह विद्यमान है। उस प्रकाशका ही तो नाम सूज्ञान है। बोलने में दो पदार्थ मालूम होते हैं। परन्तु यथार्थमें विचार करनेपर एक ही पदार्थ है।
अग्निको उष्ण कहते हैं, प्रकाशयुक्त भो कहते हैं। विचार करनेपर अग्नि एक ही पदार्थ है । इसी प्रकार सुप्रकाश व सुविज्ञानका दो पदार्थों के रूपमें उल्लेख होनेपर भी वस्तुतः वे दोनों पदार्थ एक ही हैं ।
कभी-कभी अग्नि, प्रकाश व उष्णता इन तीन विभागोंसे भी आगका कपन हो सकता है, परन्तु अग्निमें तो सभी अन्तर्भूत होते हैं। इसी प्रकार बीव, जान व प्रकाश ये सीन पदार्थ दिखने पर भी आस्माके नामसे कहने पर एक ही पदार्थ हैं, उसी में सभी अन्तर्भूत होते हैं।
पुरुषाकारके रस्नके सांचेमें रक्खे हुए स्फटिफसे निर्मित पुरुषके समान वह आस्मा शरीरके अन्दर रहता है।
वह स्फटिकके सदृश पुरुष होनेपर भी इस चर्म चक्षुके लिए गोचर नहीं हो सकता है । वह तीर्थंकर आत्मा आकाशके रूपमें प्रकाशमय स्वरूपमें विद्यमान है। ___कांचके पात्रमें दीपक रखनेपर जिस प्रकार उसको ज्योति बाहर निकलती है व बाहरसे स्पष्ट दिखती है, उसी प्रकार भगवंतके परमौदारिकदिव्यशरीरसे वह आस्मकांति बाहर आ रही है।
सूर्यकिरण जिस प्रकार शोभित होता है उसी प्रकार अनंतज्ञान व अनंतदर्शनका किरण सर्वत्र व्याप्त हो रहा है । क्योंकि पारु भगवंतने