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भरतेश वैभव ही हर्ष हुआ। मुखमें आनन्दकी हँसी, शरीरमें रोमांच व आँखों में आनंदाश्रुको धारण करते हुए उन रानियोंने बहुत भक्तिसे सासुके चरणोंको नमस्कार किया। सबको यशस्वतीने आशीर्वाद दिया । वंदना व कुशलपृच्छना होनेके बाद उन रानियोंने प्रार्थना की कि हम लोगोंने उस दिन दिग्विजय प्रस्थानके समय पुनः आपके चरणोंके दर्शन होनेतक जो नियम लिये थे वे सब आज पूर्ण हुए। आज हम उन नियमोंको छोड़ देती हैं। यशस्वतीने तथास्तु कहकर अनुमति दी। उन बहुओंने पुनः कहा कि देखा माताजी ! आपसे हम लोगोंने ब्रत ग्रहण किये थे । उसके फलसे हम सब लोग किसी प्रकारके कष्टके विना सुरक्षित आई हैं। कभी शिरदर्दकी भी शिकायत नहीं रही। बहुत आनन्दके साथ हम लोग लौट आई हैं।
भरतेश्वर पूछा कि माताजी ! इन्होंने क्या व्रत लिये थे? तब यसपटीन कहा कि किसी न किसी वस्त्रम और किसीने खानेपीनेके पदार्थोंमें नियम लिये..थे । मैंने उसी समय इन लोगोंको इनकार किया था। परंतु इन्होंने माना नहीं। व्रत ले ही लिये । भरतेश्वरने कहा कि ओहो ! माताजी इनकी भक्ति अद्भुत है, मेरे हृदय में इन सरीखी भक्ति नहीं है । मैंने कोई नियम ही नहीं लिया था। मैं कितना पापी हैं? तब उत्तरमें यशस्वतीने कहा कि बेटा! दुःख मत करो इनकी भक्ति और तुम्हारी भक्ति कोई अलग-अलग नहीं है, इनकी भक्ति ही तुम्हारी भक्ति है।
रानियोंके नमस्कार करनेके बाद चक्रवर्तीके पुत्रवधुओंने आकर नमस्कार किया। विनोदसे उनका परिचय कराते हुए सम्राट्ने कहा कि माताजी! आपकी बहुओंको आपने उस दिन आशीर्वाद दिया था तो वे उनके फलसे बहुत आनन्दके साथ समय व्यतीत कर रही हैं। अब आप इन मेरी बहुओंको भी आशीर्वाद देवें ताकि वे भी सुखी होवे । तब यशस्वती हेसती हुई कहने लगी कि बेटा ! अच्छी बात, मेरी बहुओंके समान ही तुम्हारी बहुएँ भी सुखसे समयको व्यतीत करें। सब लोग खिलखिलार्कर हँसे ।
सब रानियाँ आ गई। परंतु पट्टरानी सुभद्रादेवी अभीतक क्यों नहीं आई, इस बातकी प्रतीक्षा सब लोग कर रही थी। इतनेमें अनेक परिबार स्त्रियोंके साथ युक्त होकर सुभद्रादेवी आ गई। भरतवानीसे युक्त प्राकृतिक सौंदर्य, उसमें भी दिव्य आभरणोंका लावण्य आदिसे वह बहुत ही सुन्दर मालूम हो रही थी। सासुने आँख भरकर बहुको देखा।