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भरतेश वैभव हे सिद्धात्मन् ! आप भक्तोंके नाथ हैं, भव्योंके स्वामी हैं, विरक्तोंके अधिपत्ति है, वीरोंके अधिनायक हैं, शक्तोंके नेता हैं, शांतोंके प्रभु हैं। आप मुझे सन्मति प्रदान करें।"
इसी भावनाका फल है कि वे महाभोगी होते हुए भी योगविजयी कहलाते हैं । अर्थात् भोगी होनेपर भी योगो है।
इति जिनवासनिमित संधिः इति योगविजय नाम तृतीय कल्याणं समाप्तं ।
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